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अवान्तर कथा का मूलकथा के साथ सफल गुम्फन है । उसके द्वारा मूलकथा की स्थिति पर प्रकाश तो पड़ता ही है, साथ ही वह मूलकथा में गतिशीलता भी उत्पन्न करती है । प्रावृत्तियों की भरमार है । यथा--
पुत्र का मोर होना, माता का कुत्ता होना। नयनावली को कुबड़ा अच्छा लगता है और वह उससे प्रेम करती है, मोर (पूर्वजन्म के पति) से नहीं और उसे चोंच से मारने लगता है। नयनावली मोर को मारती है--कत्ता मोर को गले से (शायद बचाने के लिये) पकड़ता है, तब तक राजा उसे मार देता है, दोनों की अन्त्यष्टि सम्पन्न होती है । इस तरह की कई प्रावृत्तियां हैं । इससे ऐसा लगता है कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं--क्यों मोर शोर करता है, चोंच मारता है, कुत्ता क्यों पकड़ता है तथा क्यों किसी को किसी का मांस प्रिय है । ये सारी बातें अलौकिक पूर्व स्थापना के चलते हैं । जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में पूर्व जन्म का प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, आकांक्षा, क्रोध, माया, लोभ आदि का कारण चक्र चलता है । प्रत्येक की परिस्थिति एक पर्याय हो जाती है और छोटी-स-छोटी परिस्थिति भी अपना महत्व रखती हैं । ___ अन्त में क्रूरता की चण्डी की तरह चण्डी के मन्दिर का सन्दर्भ है । धनश्री अपने पति धनदेव को, जो साधु के रूप में विचरण करता हुआ प्रात्मशोधन के लिये प्रवृत्त है, उसे जीवित ही जला देना चाहती है । उसे लकड़ियां भी नहीं लानी पड़तीं, बल्कि संयोगवश वहीं एक गाड़ीवान् की गाड़ी की धुर टूट जाती है और वह उस टूटी गाड़ी को वहीं छोड़, बैलों को लेकर निकट के गांव में चला जाता है । धनश्री को सुविधा मिल जाती है और गाड़ी को धन के ऊपर रखकर वह आग लगा देती है । धन ध्यानावस्था में अन्त तक लपटों में लीन रहता है । _ अवान्तर कथाओं से कर्मफल की निर्मम श्रृंखला का ज्ञान हो जाता है । मूलकथा के साथ अवान्तर कथा की अन्विति सार्थक है । कथाविधा की दृष्टि से इसमें निम्न त्रुटियां भी वर्तमान है :--
(१) प्रावृत्तियों की अधिकता के कारण कुछ चरित्रों का पूर्ण परिपाक नहीं हुआ
(२) मूलकथा की अपेक्षा अवान्तर कथा का अधिक विस्तार और मन उबा देने
वाली जन्म-जन्मान्तरों की भरमार ।
पंचम भव : जय और विजय कथा
इस भव की कथा में मलकथा की अपेक्षा अवान्तर कथा विस्तृत है। सनत्कमार को अवान्तर कथा ने ही मूलकथा का स्थान ले लिया है । जय वयस्क होने पर परिभ्रमण के लिये जाता है और इस कथा ग्रन्थ की निश्चित शैली के अनुसार उसे सनत्कुमार आचार्य मिलते हैं । ये अपनी प्रेमकथा का वर्णन करते हैं और अपनी विरक्ति का कारण प्रेम की असारता बतलाते हैं। लेखक ने इस स्थल पर भी एक लघु उप-कथा द्वारा पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के अनिवार्य फल का प्रतिपादन किया है । अवान्तर कथा की कई शाखाएं हैं और कथानक पृथुलता इतनी अधिक है, जिससे पाठक की जिज्ञासा तो बनी रहती है, पर उसकी चेतना श्लथ हो जाती है । ?--स० पृ० ४ । ३५५ । २----वही, पृ० ४ । ३५५ । ३--वही, पृ० ४ । ३५५-३५६ ।
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