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समराइच्च कहा के दूसरे भव में स्वर्णघट के टूटने का स्वप्न--गर्भ धारण के इस हिरण्य
वर्ण विलास या धात भावना है। घट उदर का, गर्भका, रहस्य का और शरीरव्याप्त प्रात्मा के मंडलाकार चक्र का प्रतीक है और टूटना भविष्य की पीड़ा, क्षय और विनाश का प्रतीक है । इस प्रतीक परम्परा ने बहुत ही सुन्दर बिम्ब की योजना की है । प्राकृत कथाओं में प्रतीकों ने निम्न कार्य संपन्न किये है:--
(१) विषय की व्याख्या और स्पष्टीकरण । (२) सुप्त या दमित अनुभूतियों को जाग्रत करना । (३) अलंकरण या प्रसादन के लिए । (४) धार्मिक तत्वों के स्पष्टीकरण के लिए । (५) बिम्बविधानों का सृजन--परिवेश संवेदनों और प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अतीत
के रूपों, घटनाओं और वस्तुओं की असंख्य प्रतिमाओं को उपस्थित करने के लिए बिम्ब प्रतीकों की योजना की गयी है। स्पर्श, रूप, रस, गन्ध
और शब्द के अमूत्तिक भावों को मूत्तिक प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त किया
गया है । १७। कुतूहल की योजना--कुतूहल या सस्पेंस कथा का प्राण है । कुतूहल कथा के किसी विशेष अंश में निहित नहीं रहता है, किन्तु यह समस्त कथा में व्याप्त रहता है । कुतूहल द्विमुखी रहता है --यह रोमन देवता जैनस की तरह दोनों तरफ देखता है-पागे भी और पीछे भी । कथासूत्रों में कुछ ऐसे सूत्र होते हैं, जिनके रहस्य के सम्बन्ध में पाठक को अनभिज्ञता रहती है। अमक घटना का उदय कैसे और कहां हा, अमक पात्र का व्यक्तित्व कैसा और पूरा परिचय क्या है, अमुक पात्र के मन में अमुक संकल्प या विचार-प्रवाह कैसे जाग्रत हुआ आदि बातों को जिज्ञासा लगी रहती है । यही कुतूहल उत्पत्ति-कारण है । कथाकार का यह कर्त्तव्य रहता है कि वह कथा के उन्हीं पूर्व सूत्रों का विवरण उपस्थित करे, जिनके बिना कथा की घटना को समझने में कठिनाई उत्पन्न होती है अथवा प्रभाव उत्पन्न करने में व्यतिक्रम हो जाता है । __प्राकृत कथाकारों ने पूर्ववर्ती घटनाओं को एक साथ न कहकर उनके अनेक अंशों को धीरे-धीरे अनावृत्त किया है, जिससे पाठक आधारभूत घटना को जानने के लिये अत्यधिक उत्सुक रहता है । कुवलयमाला में कुवलयचन्द का घोड़ा अपहरण करता है, यह एक रहस्य है, इसे कथाकार ने आगे जाकर उद्घाटित किया है । इस स्थान पर कुतूहल का सुन्दर सूजन हुआ है । कथा के साथ अवान्तर और उपकथाओं की सघन योजना भी कुतूहल के सृजन में कम सहायक नहीं हैं । कुवलयमाला में पूर्ववर्ती कुतूहल को सुन्दर योजना है।
लीलावई कहा में परवर्ती कुतूहल के स्थल उपलब्ध हैं। "फिर क्या हुआ" की वृत्ति वसुदेवहिंडी में अत्यधिक है। इस श्रेणी के कुतूहल का उदय दो परिस्थितियों में होता है । कथा का कोई ऐसा पात्र, जिसके साथ हमारी सहानुभूति रहती है, जब संकट में पड़ जाता है तो हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि अब उसका क्या हुआ । जैसे श्रीपाल कहा में श्रीपाल को समद्र में डाल देने पर हमारे मन में यह कुतहल जाग्रत रहता है कि श्रीपाल का क्या हुआ । धवलसेठ के षड्यंत्र किस प्रकार विफल हुए। श्रीपाल ने रत्नद्वीप पहुँच कर मदन-मंजूषा से किस प्रकार विवाह किया । उज्जयिनी के चौराहे पर श्रीपाल मदनसुन्दरी के साथ एक अर्द्धवृद्धा नारी के चरणों में गिर जाता है। पाठक को इस स्थल पर पाश्चर्यमिश्रित कौतूहल होता है कि यह नारी कौन है जिसकी चरणवन्दना यह कर रहा है ? पारामसोहा कहा में नागकुमार की अदृश्य शक्ति के कारण मारामशोभा पाटलिपुत्र में प्रतिदिन अपने पुत्र से मिलती है और उसे एक पुष्प भेंट में देती है और अदृश्य हो जाती है । राजा तथा अन्य व्यक्तियों के साथ पाठक को
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