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है । वातावरण, चरित्र और अनुभूतिचित्रण में कथानक क्रमशः सूक्ष्म होते जाते हैं। स्थूल कथानक में घटना, वातावरण के सृजन में सहायक होती है, पर सूक्ष्म कथानक में चरित्रोद्घाटन और मनोवृत्तियों के विश्लेषण भी कथानक को सहायता पहुंचाते हैं। कथावस्तु के अंगों में शीर्षक, प्रारंभ, मध्यविन्दु और अन्त इन चारों पर ध्यान दिया जाता है । श्रीपाल कथा में प्रधान पात्र के नाम पर कथा का नामकरण किया गया है । पात्रों के निर्माण में कथाकारों ने निम्न तीन बातों पर ध्यान दिया है:--
(१) स्वाभाविकता । (२) सजीवता ।
(३) कथा के मूलभाव के प्रति अनुकूलता । ___ कथा का प्रतिपाद्य चाहे कोई घटना हो, वातावरण हो, भाव हो, पर पात्र के प्रभाव में कथानक खड़ा ही नहीं हो सकता है।
कथानक के तत्वों में कथानक और पात्र के पश्चात् कथोपकथन का स्थान प्राता है। कथोपकथन के समावेश से कथा में नाटकीयता आ जाती है तथा कथा में रोचकता मनोरंजकता, सजीवता और प्रभावशालिता की वृद्धि होती है। लीलावई कहा और कुवलयमाला के कथोपकथन अत्यन्त स्वाभाविक, सजीव और साभिप्राय है । कथोपकथन कुतूहल और जिज्ञासा उत्पन्न करने में समर्थ है।
घटनाएं जिस वातावरण में घटित होती है, उस वातावरण को महत् होना चाहिए। देशगत और कालगत वातावरण की योजना घटनाओं को सजीवता प्रदान करती है । वातावरण के अभाव में घटनाओं और पात्रों की कल्पना यदि संभव भी हो, तो भी उनसे हमारा तादात्म्य नहीं हो सकता है । अतः प्राकृत कथाओं में भोगायतन स्थापत्य द्वारा कथानों के शरीर को परिपूर्णता के लिए वातावरण को सुन्दर योजना की गई है ।
वातावरण का गहरा संबंध कथानक की परिस्थितियों, घटनाओं और पात्रों से ही होता है । मूल भावना अथवा प्रतिपाद्य या संवेदना की प्रभावान्विति भी वातावरण के बिना संभव नहीं है ।
भोगायतन स्थापत्य में वातावरण दो प्रकार का रहता है--भौतिक और मानसिक । भौतिक वातावरण बाह यचित्र उपस्थित करता है और मानसिक वातावरण मन का । ये दोनों प्रकार के वातावरण नितान्त पृथक् नहीं है, किन्तु दोनों परस्पर में संबद्ध हैं। भौतिक
और मानसिक वातावरण के समन्वय में ही कथा की चारुता अन्तर्निहित रहती है । यह ध्यातव्य है कि कथाओं में वातावरण के चित्रण विस्तार की आवश्यकता नहीं है । संक्षेप और संकेत रूप में ही चित्रण वांछनीय रहता है । कुछ चुनी हुई स्पष्ट रेखाओं को खींचकर उनमें सुन्दर रंगसाजी द्वारा ही कथा में चारुता उत्पन्न की जाती है । । प्राकृत कथाओं में उद्देश्य तो सर्वप्रमुखतत्त्व माना गया है । प्रत्येक कथा के पीछे एक उद्देश्य अवश्य रहता है । यह उद्देश्य कथा को मूल प्रेरणा का कार्य करता है । उद्देश्य की सिद्धि के लिये ही तो कथा में पात्र, परिस्थितियों, वातावरण और विधान-कौशल की योजना होती है। यही वह विन्द है, जिसकी अोर घटनाएं, पात्र, चरित्र प्रादि उन्मख रहते हैं। इसके अभाव में कथाओं का भोगायतन अपूर्ण और विकृत रहता है ।
प्राकृत कथा का उद्देश्य मात्र मनोरंजन कराना ही नहीं है किन्तु जीवनसंबंधी तथ्य या प्रादर्श उपस्थित करना है । साथ ही जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों का उद्घाटन कर पाठकों को व्रत, चरित्र की ओर अग्रसर करना है। प्राकृत कथाओं को अन्तिम परिणति
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