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जब राजा भोजन मंडप में बैठा तो पहले दाडिम, द्राक्षा, दंतसर, बेर श्रादि चर्वणीय पदार्थ, अनन्तर ईख की गंडेरी, खजूर, नारंग श्रादि पोष्य पदार्थ, पश्चात् खड़ी चटनी आवि लेह्य-पदार्थ, इसके बाद मोदक, फेनी, घे बर, पूड़ी, सुगन्धित चावल, विभिन्न प्रकार के व्यंजन -- तरकारियां, कढ़ी आदि परोसे गये । हाथ धुलाने के पश्चात् आधा श्रौंटा हुआ केशर, चीनी आदि से मिश्रित दूध पीने को दिया गया । श्राचमन के पश्चात् दंतशोधन शलाकाएं लाई गई ।
भोजन मंडप से उठकर राजा दूसरे मंडप में गया । वहां पर विलेपन, पुष्प, गन्ध, माल्य और ताम्बूल आदि पदार्थ दिये गये ।
उपर्युक्त वर्णन मंडनशिल्प का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । प्राकृत कथाकारों ने इस प्रकार कथाओं में रोचकता लाने का प्रयास किया है । मंडनशिल्प मात्र कथावस्तु को समृद्ध ही नहीं करता, किन्तु कथा में एक नया मोड़ भी उत्पन्न करता है । इस शिल्प से कथासंघटन में पर्याप्त चमत्कार उत्पन्न होता है । मानवीय कुलशील का चित्रण और अनुकथन भिन्न-भिन्न प्रकार से करने तथा मानव-जीवन का उन्मुक्त और विवरणात्मक चित्रण करने के लिए यह स्थापत्य एक उपादान है। जीवन के प्रेरक भावों की अभिव्यंजना में भी यह स्थापत्य सहायक है । प्राकृत कथाओं में इसके निम्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं
(१) श्रेष्ठि वैभव के वर्णन के रूप में ।
(२) दृष्टान्तों के प्रयोग द्वारा ।
(३) देश और नगर की समृद्धि वृद्धि के रूप में ।
( ४ ) राजप्रासाद और देवप्रासाद के वर्णन के रूप में ।
११ । भोगायतन स्थापत्य - - भोगायतन यह दर्शन का शब्द है । तर्कभाषा में इसकी परिभाषा बतायी गई है । " भोगायतनमन्त्यावयविशरीरम् । सुखदुःखान्यतर साक्षात्कारो भोगः स च यदवच्छिन्न श्रात्मनि जायते तद्भोगायतनं तवे व शरीरम्" । अर्थात् शरीर के विभिन्न अवयवों के द्वारा श्रात्मा का भोग होता है अतः कर, चरण, वदन, उदर आदि से पूर्ण शरीर ही भोगायतन है । कथा-साहित्य के क्षेत्र में इस स्थापत्य का आशय यह है कि कथा को विभिन्न अंगों में विभक्त कर उसकी पूर्णता दिखलायी जाय। जिस प्रकार समस्त श्रवयवों की संतुलित पूर्णता से शरीर या भोगायतन का कार्य सम्यक् रूप से चलता है, उसी प्रकार कथा के विभिन्न अंगों की संतुलित पूर्णता से कथा में रस और चमत्कार उत्पन्न होता है । वसुदेवहंडी में कथा के छः अंग बताये गये हैं
(१) कथोत्पत्ति - - कथा की उत्पत्ति की विवेचना |
(२) प्रस्तावना - भूमिका या प्रस्तावना के रूप में कथा के परिवेशों का कथन ।
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१ - - तो तीए रायसीहदुवाराम्रो समारम्भ उभयो पासेसु रायमग्गभित्तिसु निवे सियाओ दीहरवलिया उद्धमुही प्रोप्पिकयवे हसु निवेसिया वंसा । निबद्धा वंसदले हि । -- - पासायपढमभूमिगाए महम्भमंडसंचयं । वीयभूमिगाए दासीदास संतइए पायणभोयणाइ किरियं । तत्यपेच्छइ सव्वोउय पुफ्फलोवचियं पुण्णागनागचम्पइनाणा दुमसंकलियं नंदणवणसंकासं काणणं -उवणीयाई चव्वीयाई दाडिमदक्खादंत सरवोरायणाई |-- - तयणंवर भुवणीयं कोसं सुसमारिय इक्ख ुगंडियाखज्जर-नारंग वगाइभेयं । - -उवणीयं विलेवण पुष्पगंधमल्लतं बोलाइयं- -- जिने ० कथा० शालिभद्र क० पृ०, ५७-५८ ।
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२ -- तर्क ०, पृ० १६३ ।
३ - - कहुप्पत्ती १, पेढ़िया २, मुहं ३, पडिमुहं, ४, सरीरं ५, उपसंहारो ६ वसुदेवहिण्डी
प० १ ।
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