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________________ वधू की तरह सुगम, कलाविधा संबंधी वाक्य विन्यासों के कारण सुश्राव्य, मधुर सुन्दर शब्दावली से गुम्फित, कौतूहल युक्त सरस और आनन्दानुभूति उत्पन्न करने वाली कथा होती है। इस प्रकार की कथा आबालवृद्ध सभी को हर्ष उत्पन्न करती है। कथा के बाहय परिधान के संबंध में भी उक्त रूपरेखा प्रकाश डालती है। यह कथा गाथाओं में निबद्ध की जा सकती है। गद्य में भी कथा की संघटना होती है। महीपाल कथा' में धर्मकथा के विभिन्न रूपों का उल्लेख करते हुए कथा के लिये कुतहल को आवश्यक तत्त्व माना है। वास्तव में कथा का प्राणतत्त्व कूतहल ही हैं। इसके बिना कथा में सरसता नहीं आ सकती है। साहित्य की अन्य विधाओं में कथा की रोचकता और लोकप्रियता का कारण यह कुतूहल ही है। कुतुहल की शान्ति के लिये ही पाठक या श्रोता अपने धैर्य का संवरण किये हुए लम्बी-लम्बी कथाओं को पढ़ता और सुनता है। साहित्यदर्पण में कुतूहल की गणना स्वभावज अलंकारों में की है। बताया गया है--"रम्यवस्तु समालोक लोलता स्यात्कुतूहलम्" २ अर्थात सुन्दर वस्तु के अवलोकन से उत्पन्न मन की चंचलता कौतूहल है। चंचलता और उत्सुकता की वृद्धि होना तथा अन्त में जिज्ञासा को शान्ति होना कथास्थापत्य का एक प्रमुख गुण है। नीरस कथा श्रोता या पाठक को बोझिल हो जाती है और वह आद्योपान्त कथा को पढ़कर आनन्दानुभूति नहीं प्राप्त कर सकता है। मनोरंजन तत्त्व कथानक को प्रवाहमय और आकर्षक बनाता है । गम्भीरता, महत् उद्देश्य और महच्चरित्र की सिद्धि में भी कुतूहल सहायक होता है। अतः कथा का सबसे बड़ा गुण कुतूहल है। आधुनिक कथाओं के स्थापत्य में कौतुहल को प्रमुख स्थान प्राप्त है। जीवन की सघन जटिलताओं को सुलझाने का कार्य तथा अनेक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने के नवीन विधान कथा में तभी सम्भव है, जब उसमें कुतूहल और मनोरंजन ये दोनों गुण यथेष्ट रूप में वर्तमान हों। महीपाल कथा में उल्लिखित कुतूहल तत्त्व कथासाहित्य की रीढ़ है, इसके अभाव या न्यूनता में कथा रसमयी नहीं हो सकती है । १। प्राकृत कथाओं के स्थापत्य में सबसे आवश्यक बात यह है कि कथा का आरम्भ ता-श्रीता के रूप में होता है। चरित काव्यों में प्रायः गौतम गणधर प्रश्नकर्ता और भगवान महावीर उत्तर देने वाले हैं अथवा श्रेणिक प्रश्नकर्ता और गौतम गणघर प्रश्नोत्तर देने वाले है। अतः कथाओं का आरम्भ प्रश्नोत्तर के रूप में होता है। प्रश्नोत्तर स्थापत्य की विशेषताओं का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है--"कल्पनामूलक कथाओं का दो व्यक्तियों की बातचीत के रूप में कहना कुछ अप्रत्यक्ष सा होता है और कवि का उत्तरदायित्व कम हो जाता है ।" लीलावती कथा में आया है कि कवि की पत्नी सायंकालीन मधुर शोभा को देखकर अपने प्रियतम से मधुर कथा कहने का आग्रह करती है। कवि की पत्नी ने देखा कि अन्तःपुर की गृहदीधिका या भवनवापी में चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से झलकती हुई कान्ति १--तह धम्मकहं चिय मोक्खंग, परममित्थ निद्दिट्ठ॥ तंपिदुसुपुरिसचरियं बहुविहकोउहलं सुभरियं ॥ वीर० वि० भ० गा० १४, पृ० १। २ --सा० द० ३। १०९ । ३--हि० सां० आ० पू० ६२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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