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आदि मुनियों के, ब्राहमी सुन्दरी आदि सती साध्वियों के, राम, कृष्ण, रुद्र आदि वैदिक धर्म में माने जाने वाले ईश्वरावतारीय व्यक्तियों के एवं सौधर्मेन्द्र, चमरेन्द्र आदि देवताओं के विस्तृत वर्णन निबद्ध रहते हैं ।
तीसरे प्रकार में रोमानी ढंग से प्रस्तुत की गई धार्मिक कथाएं हैं। इन्हें आख्यायिका या कथा कहा जा सकता है । इन कथाओं में लोकप्रसिद्ध किसी नारी, अथवा पुरुष की जीवन घटना को केन्द्र बनाकर वर्णन को काव्यमय शैली में शृंगार, वीर, करुण आदि रसों में अलंकृत करके लिखा जाता इस कोटि की कथाओं में जन्म-जन्मान्तर को घटना जाल को इतने सघनरूप से गूंथा जाता है, जिससे पाठक के समक्ष कार्यफल एवं अशुभ कर्मों से विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है । इस शैली को हम द्राक्षापाक शैली भी कह सकते हैं । श्रोता या पाठकों के लिए अत्यन्त रुचिकर होने के साथ मानसिक स्वास्थ्य का संवर्धन करती है । कथाकार कल्पना और पौराणिकता का इतना सुन्दर मिश्रण करता है, जिससे कथा में अपूर्व रसास्वाद उत्पन्न होता है । रसिक कथा वर्णन केवल मनोरंजन ही उत्पन्न नहीं करते हैं, किन्तु इनमें निहित उपदेश एक विचित्र प्रकार की स्फूर्ति उत्पन्न करते हैं ।
चौथे प्रकार की वे कथाएं हैं, जिन्हें अर्ध - ऐतिहासिक प्रबन्ध कह सकते हैं। इनमें भगवान् महावीर, तथा उनके समकालीन राजकीय व्यक्ति, व्यापारी, श्रेष्ठी समुदाय, धर्माराधक, धर्मप्रचारक आदि के चरित अंकित रहते हैं । इन चरितों में अन्य पुरुषात्मक शैली के दर्शन होते हैं । इस पद्धति में जो वर्णन आते हैं, उन्हें विवरणात्मक कहा जा सकता है । इस प्रकार के कथा लेखक को घटनाओं, परिस्थितियों, वातावरण, पात्र के चरित्र, उसकी भावनाओं, विचारों और विश्वासों का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है । यह अपनी ओर से कथा की घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करता है, पात्रों का परिचय एवं उनके चरित्र के गुण दोषों पर टीका-टिप्पणी करता है । प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण, पात्रों के मनोविकारों का विश्लेषण, स्थिति परिस्थिति की अवतारणा और उनका विवेचन करता चलता है । इस प्रकार की कथाएं इतिहास और काव्य के मध्य का कार्य करती हैं । कुतूहल और मनोरंजन ये दोनों तत्व इस प्रकार की कथाशैली में भरपूर पाये जाते हैं । घटनाओं की अवतारणा, मार्जारावतरण, घटावतरण और मद्यावतरण के रूप में होती है । बिल्ली ऊंचाई से कूदती हैं और पंजों के बल खड़ी हो जाती है । इसका झपटना या कूदना एकाएक होता है, यह तभी कूदती है, जब इसे यह विश्वास हो जाता है कि उसे कोई देख नहीं रहा है । इसी प्रकार घटनाएं एकाएक उपस्थित होती हैं, पाठक कल्पना कुछ करता है और लेखक कोई दूसरी ही घटना की दिशा उपस्थित कर देता है । घटवतरण का आशय उन घटनाओं से हैं, जो पहले से चली आती हुई एकाएक लुप्त हो जाती हैं और नई घटनाएं या नये कथानक कथा में मोड़ उत्पन्न करने लगते हैं । जिस प्रकार घड़ा पृथ्वी पर गिरते ही चूर-चूर हो जाता है, उसका अस्तित्व रूपान्तरित हो जाता है, इसी प्रकार पहले से चली आई हुई कथाओं का विलयन या रूपान्तरित हो, कथा नये रूप में प्रकट हो जाती है । घटनाओं में नये-नये मोड़ उत्पन्न होते हैं । द्यावतरण से तात्पर्य यह है कि जहां कथाओं का वितान- सातत्य सर्वदा बना रहे और कथाजाल पूर्ण सघन हो । यह स्थिति रस-आस्वादन में बड़ी सहायक होती है । पर इस शैली में एक दोष भी है कि पाठक जल्दी ऊब जाता है ।
पांचवें प्रकार की कथाओं का संग्रह कथाकोशों में किया गया है । इन कथाओं का उद्देश्य दान, पूजा, भक्ति, व्रत, अनुष्ठान आदि की ओर जनता को लगाना है । सदाचार, नैतिक उपदेश, लोकरंजक आख्यान आदि भी इनमें गर्भित हैं । आकार की दृष्टि मे इस वर्ग की कथाएं छोटी होती हैं । समाज और जीवन की विकृतियों पर इन कथाओं में पूरा प्रकाश डाला जाता है । इस प्रकार की कथाएं गद्य या पद्य में अथवा दोनों में हो पायी जाती हैं ।
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