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उद्योतनसूरि ने नाना जीवों के नाना प्रकार के भाव-विभाव का निरूपण करने वाली कथा धर्मकथा' बतायी है। इसमें जीवों के कर्मविपाक, औपमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों की उत्पत्ति के साधन तथा जीवन को सभी प्रकार से सुखी बनाने वाले नियम आदि को अभिव्यंजना होती है।
(धर्मकथाओं में धर्म, शील, संयम, तप, पुण्य और पाप के रहस्य के सूक्ष्म विवेचन के साथ मानव जीवन और प्रकृति की सम्पूर्ण विभूति के उज्ज्वल चित्र बड़े सुन्दर पाये जाते हैं। जिन धर्मकथाओं में शाश्वत सत्य का निरूपण रहता है, वे अधिक लोकप्रिय रहती हैं। इनका वातावरण भी एक विशेष प्रकार का होता है। यद्यपि सम्प्रदायों की विभिन्नता और देशकाल की विभिन्नता के कारण धार्मिक कथा साहित्य में जहां-तहां मानवता की खाई जैसी वस्तु दिखलायी पड़ेगी, पर यह सार्वजनीन सत्य नहीं है, यतः प्राकृत धर्मकथा साहित्य में उन सार्वभौमिक और जीवनोपयोगी तथ्यों की अभिव्यंजना की गयी है, जिनसे मानवता का पोषण होता है) यह स्मरण रखना होगा कि धर्मकथा का प्रणेता धर्मोपदेशक से भिन्न है। वह शुष्क उपदेश नहीं देता और न वह किसी धर्मविशेष का आचरण करने की बात हो कहता है। अपनी कथा के माध्यम से कुछ ऐसे सिद्धांत या उपदेश पाठक के सामने छोड़ देता है, जिससे पाठक स्वयं ही जीवनोत्थानकारी तथ्यों को पा लेता है। इसमें जनता की आध्यात्मिक आवश्यकताओं का निरूपण, भावजगत् को ऊंचा उठाने का प्रयास एवं जीवन और जगत् के व्यापक सम्बन्धों की समीक्षा मार्मिक रूप में विद्यमान रहती है।)
वास्तविकता यह है कि समाज निर्माण में आर्थिक शोषण उतना बाधक नहीं, जितना आध्यात्मिक शोषण । आर्थिक शोषण से समाज में गरीबी उत्पन्न होती है और गरीबी से अशिक्षा, भावात्मक शून्यता, अस्वास्थ्य आदि दोष उत्पन्न होते है, परन्तु आध्यात्मिक शोषण होने से जनता का भावजगत् ऊसर हो जाता है, जिससे उच्च सुखमय जीवन की अभिलाषा पर शंका और सन्देहों का तुषारापात हुए बिना नहीं रह सकता। आत्मविश्वास और नैतिक बल के नष्ट हो जाने से जीवन मरुस्थल बन जाता है और हृदय की आकांक्षाओं की सरिता, जिसमें उज्ज्वल भविष्य का श्वेत चन्द्र अपनी ज्योत्सना डालता है, शुष्क पड़ जाती है। आत्मविश्वास चले जाने पर जीवन उद्भ्रान्त और किकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है और जीवन में आंतरिक विखलता भीतर प्रविष्ट हो जीवन को अस्त-व्यस्त बना देती है। धर्मकथा का उद्देश्य आध्यात्मिक भूख जगाना है।
(नैतिक या आत्मिक उत्थान, जो कि जीवन को विषय परिस्थितियों से धक्का लगाकर आगे बढ़ाता है, इन धर्मकथाओं में प्रमुख रूप से वर्णित है। धर्मकथाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें पहले कथा मिलती है, पश्चात् धार्मिक या नैतिक ज्ञान। जैसे अंगूर खान, वाले को प्रथम रस और स्वाद मिलता है, पश्चात् बल-वीर्य। जिस धर्मकथा का स्थापत्य शिथिल होता है उसमें अवश्य ही कथाकार उपदेशक बन जाता है। धर्मकथाओं में जीवन निरीक्षण, मानव की प्रवृत्ति और मनोवेगों की सूक्ष्म परख, अनुभूत सत्यों और समस्याओं का सुन्दर समाधान भी कम नहीं पाया जाता है। मनोरंजन के तत्वों का भी अभाव नहीं रहता है।। धर्मकथा के भेदों का वर्णन दशवकालिक में निम्न प्रकार उपलब्ध है :
__ धम्मकहा बोद्धव्वा चउन्विहा धीरपरिस पन्नता। . अक्खे वणि विक्ख वणि संवेगो चेव निव्वेए॥
१--सा उण धम्मकहा णाणाविहजीवपरिणामभावविभावणत्थं ।
--उद्योतनसूरि कुव०, पृ० ४, अनु० ।
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