SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० के साथ रहता था। दत्त का मित्र नन्द था। एक दिन दत्त के सिर में बड़े जोर का दर्द हया और बेचैनी के कारण उसे नींद नहीं आयी। दत्त ने नन्द को बुलाया और अपनी वेदना उससे कही। नन्द ने संगीत विद्या के बल से दत्त को सला दिया। नींद आते ही उसकी वेदना दूर हो गई। नन्द के सुमधुर गायन से श्री बहुत आकृष्ट हुई और कुछ दिनों के बाद उसने अपने पति से कहा--मेरे सिर में असह्य पीड़ा है। अतः नन्द को बुलाकर मेरा भी इलाज कराइये। नन्द बुलाया गया, उसके सुमधुर गायन को सुनकर श्री मुग्ध हो गई। श्री ने नन्द के समक्ष अपना प्रणय प्रस्ताव रखा। नन्द ने श्री को इस पाप से बचने का उपदेश दिया और अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर वह चला गया। दीवाल के पीछे खड़ा हुआ दत्त इन लोगों की बातों को सुन रहा था। उसे नन्द के ऊपर आशंका हुई और उसने एक दिन पान में रखकर नन्द को विष खिला दिया, जिसमें नन्द का प्राणान्त हो गया। इस पाप के फल से दत्त ने तीसरे नरक में जन्म लिया। वहां से निकल कर अनेक योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त उसने मनुष्य गति में जन्म लिया। जन्म होते ही उसके माता-पिता परलोक चले गये। परिवार के व्यक्तियों ने पुत्र को विपत्तियों का भण्डार जानकर वन में छोड़ दिया। उस वन में शिव नामका शस्त्र नायक आया और दयाकर उस पुत्र को अपने घर ले गया। उस दुर्भाग्यशाली के जाते ही उस पर नाना प्रकार से विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़े। वह निर्धन हो गया। फलतः इस बालक को भिक्षाटन कर आजीविका करनी पड़ी। एक दिन उसे ऊपर बहत पश्चात्ताप हया और वह ज्वलनप्रभ नामक तपस्वी के निकट दीक्षित हो गया। बालतप कर मरण किया, जिससे तप के प्रभाव से वसन्तपुर नगर में हरिचन्द्र राजा के यहां हरिवर्मा नामक पुत्र हुआ। राजा हरिचन्द्र हरिवर्मा को राज्य देकर प्रवृजित हो गया। हरिवर्मा को हरिदत्त नामक पुत्र हुआ। इस हरिवर्मा का वैश्रमण नामक अमात्य था। इसने षड्यंत्र रचकर हरिदत्त का वध करा दिया, जिससे राजा हरिवर्मा बहुत ही स तप्त रहने लगा। कालान्तर में अरिष्टनेमि स्वामी का समवशरण आने पर राजा ने अपने पुत्र के वध की बात पूछी। भगवान ने नन्द और दत्त को भवावली बतलायी तथा अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डाला। इस कृति की सभी प्रासंगिक कथाएं मनोरंजक है। मूलकथा में घटनाओं का एक जटिल, सघन और दुरूह जाल दूर तक फैला कर भी लेखक ने समस्त तथ्यों को समेट कर एकत्र पूंजीभूत कर दिया है, जिससे चरित में कथातत्त्व सुरक्षित रह गये हैं। समें मानव व्यापारों का वर्णन ही प्रधान नहीं है, किन्त देव-दानवों का समावेश भी इस कृति में हुआ है। ये पात्र भी मानव के अभिन्न सहचर प्रतीत होते हैं। धार्मिक और पौराणिक वातावरण के बीच नैतिक तथ्यों की अभिव्यंजना सुन्दर हुई है। रचना-विधान की दृष्टि से यह कथाकृति प्रायः सफल है। भगवान महावीर के ऐतिहासिक तथ्य में कल्पना का पूरा मिश्रण किया है। अलंकारों और विविध छन्दों के प्रयोग द्वारा इसे पर्याप्त सरस बनाया है। व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग इसकी अपनी विशेषता है। इसमें से प्रासंगिक कथाओं के जमघट को यदि पृथक कर दिया जाय तो एक खासा लघु कथाओं का संग्रह तैयार किया जा सकता है। ये लघु कथाएं ही इस चरित काव्य को कथाकृति के क्षेत्र में उ.स्थित करती हैं। धर्मोपदेश के प्रचार और प्रसार के लिए लिखी गई इन लघु कथाओं में से स्वकल्पना द्वारा अधिकांश कथाओं का रूपगठन किया गया है। पौराणिक आख्यानों में कल्पना का अधिक प्रयोग इस कृति की प्रमुख विशेषता है। यद्यपि शैली और रूपायन में पूर्ववर्ती लेखकों का अनुकरण ही प्रतीत होता है तो भी तथ्यों की व्यंजना ये नवीनता है। मनोरंजन के लिए गद्य और पद्य का मिश्रण कर कथाओं को पूर्ववर्ती कथाकारों के समान सरस बनाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy