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________________ ७७ इसमें जिन पूजा का माहात्म्य कथाओं द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। भगवान की पूजा गन्ध, धूप, अक्षत, पुष्प, दोष, नैवेद्य, फल और जल द्वारा की जाती हैं। पूजा करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार की विभूतियों के साथ निर्वाण लाभ करता है । इस ग्रन्थ में गन्ध पूजा का माहात्म्य दिखलाने के लिए जयसुर राजा की कथा, धूप पूजा के लिए विनयन्धर की कथा, अक्षत पूजा के लिए कीर युगल की कथा, पुष्प पूजा के लिए वणिक् सुता लीलावती की कथा, दीप पूजा के लिए जिनमती धनश्री की कथा, नैवेद्य पूजा के लिए हलीपुरुष की कथा, फल पूजा के लिए दुर्गा की कथा एवं जल पूजा के लिए विप्रसुता की कथा प्रायी है । अन्त में एक प्रवशिष्ट कथा भी हैं, जिसमें पापात्मा गृहस्थ भी पश्चाताप द्वारा अपनी शुद्धि कर सकता है, की सिद्धि की गयी है । उत्थाfret में बताया है भरतक्षेत्र में रत्नपुर नामका नगर है । इसमें राजा रिपुमर्दन शासन करता था । इसकी भार्या का नाम अनंगरति था। इसी दम्पति का पुत्र विजयचन्द्र हुआ। यह यथार्थ नामवाला था, चन्द्रमा के समान सभी के मन को प्रसन्न करता था । इसकी दो भार्याएं थीं -- मदनसुन्दरी और कमलश्री । क्रमशः इन दोनों के दो पुत्र हुए, जिनके नाम कुरुचन्द्र और हरिचन्द्र थे । एक समय वहां प्राचार्य पधारे। राजा रिपुमर्दन सपरिवार आचार्य क दर्शन के लिए गया । उनका धर्मोपदेश सुनकर उसे संसार से विरक्ति हुई, अतः वह विजयचन्द्र को राज्य देकर प्रवृजित हो गया। कालान्तर में राज्य का उपभोग करने के उपरान्त विजयचन्द्र भी कुसुमपुर नगर का अधिकारी हरिचन्द्र को और सुरपुर नगर का अधिकारी कुरुचन्द्र को बनाकर दीक्षित हो गया। विजयचन्द्र ने घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान की प्राप्ति की । विजयचन्द्र केवली विहार करता हुआ कुसुमपुर में आया और नगरी के बाहर उद्यान में समवशरण सभा प्रारम्भ हुई। नागरिकों के साथ राजा हरिचन्द्र भी केवलो के दर्शन के लिए आया । उसने केवली से प्रष्ट प्रकार के पूजा का माहात्म्य पूछा । केवली ने प्रत्येक द्रव्य से की जाने वाली पूजा का कथनों द्वारा निरूपण किया । पहली कथा में बताया गया है कि वैताढ्य पर्वत को दक्षिण श्रेणी में गजपुर नाम के नगर में जयसूर नाम का विद्याधर राजा अपनी शुभमति भार्या के साथ राज्य करता था। एक समय इसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसे जिन पूजा तथा तीर्थवन्दना का दोहद उत्पन्न हुआ । विद्याधर राजा उसे विमान में बैठाकर अष्टापद पर्वत पर ले गया और वहां उन्होंने गाजे-बाजे के साथ भगवान की पूजा की। पूजा करने के उपरान्त रानी न े राजा से कहा -- स्वामिन, कहीं से बड़ी दुर्गन्ध आ रही है। तलाश करना चाहिए कि यह दुर्गन्ध कहां से आ रही है। घूमते हुए उनलोगों ने एक शिलापट्ट पर एक मुनिराज को ध्यान मग्न देखा । धूप और धूल के कारण मुनिराज के शरीर से गन्दा पसीना निकल रहा था, अतः उन्हीं के शरीर से दुर्गन्ध निकल रही थी । रानी शुभमती ने राजा से कहा -- स्वामिन्, इस ऋषिराज को प्रासुक जल से स्नान कराके चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों का लेप कर देना चाहिए, जिससे इनके शरीर की दुर्गन्ध दूर हो जाय । रानी के परामर्शानुसार मुनिराज के शरीर का प्रक्षालन किया गया और सुगन्धित पदार्थों का लेप कर दिया गया। वे विद्याधर दम्पति वहां से अन्यत्र यात्रा करने चले गये । इधर सुगन्धित पदार्थों की गन्ध से आकृष्ट हो भौंर मुनिराज के शरीर से श्राकर चिपट गये, जिससे उनको अपार वेदना हुई, पर ध्यानाभ्यासी मुनिराज तनिक भी विचलित नहीं हुए। जब कई दिनों के पश्चात् वे विद्याधर दम्पति तीर्थवन्दना लौटे, तो उन्हें शमार्ग से वह मुनिराज दिखलायी नहीं पड़े । कौतूहलवश नीचे आकर वे लोग मुनिराज की तलाश करने लगे। उन्होंने देखा कि मुनिराज के चारों ओर इतने अधिक भरे एकत्र थे, जिससे वे दिखलाई नहीं पड़ते । उनलोगों ने सावधानीपूर्वक भौरों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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