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________________ अर्थात, भव्य या भावक जनों को सक्रिया में प्रवृत्ति और असत् से निवृत्ति कराने के लिए कुछ पौराणिक चरितों को निबद्ध किया है, किन्तु कुछ कथानक परिकल्पित भी निबद्ध किये गये हैं। प्रारंभ की सात कथानों में जिन पूजा का फल, आठवों में जिन स्तुति का फल, नौवीं में यावृत्य का फल, दसवीं से पच्चीसवीं तक दान का फल, आगे की तीन कथाओं में जनशासन की उन्नति का फल, दो कथाओं में साधुओं के दोषोद्भावन के कुफल, एक कथा में साधुओं के अपमान निवारण का फल, एक में धर्मोत्साह की प्रेरणा का फल, एक में धर्म के अनधिकारी को धर्मद शनाका वैयथ्यं सूचक फल एवं एक कथा में सद्देशना का महत्व बतलाया गया है । इस कथाकोष को कुछ कथाएं बहुत ही सरस और सुन्दर हैं । उदाहरणार्थ एकाप कथा उद्धृत की जाती हैं। सिंहकुमार ' नामक एक राजकुमार है, उसका सुकुमालिका नामक एक बहुत हा सुन्दर और चतुर राजकुमारी के साथ पाणिग्रहण हुआ है । दोनों में प्रगाढ़ स्नेह है। राजकुमार बहत ही धर्मात्मा है। वह एक दिन धर्माचार्य की वन्दना करने जाता है और अतिशय ज्ञानी समझकर उनसे प्रश्न करता है--प्रभो मेरी पत्नी का मेरे ऊपर यों ही स्वाभाविक अनुराग है अथवा पूर्वजन्म का कोई विशेष बन्धन कारण है ? धर्माचार्य उसके पूर्वजन्म की कथा कहते हैं । कौशाम्बी नगरी में सालिवाहन नामका राजा था। इसकी महादेवी प्रियंवदा नामको थी। इनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम तोसली था । यह बड़ा रूपवान, रतिविलक्षण एवं युवराज पद पर आसीन था। इसी कौशाम्बी नगरी में धनदत्त सेठ अपनी नन्दा नामक भार्या और सुन्दरी नामक पुत्री सहित निवास करता था । सुन्दरी का विवाह उसी मगरी के निवासी सागरदत्त सेठ के पुत्र यशवर्द्धन के साथ सम्पन्न हुअा था । यह बहुत ही कुरूप था और सुन्दरी को बिल्कुल ही पसन्द नहीं था । सुन्दरी भीतर से उससे घृणा करती किसी समय यशवर्धन व्यापार के निमित्त परदेश जाने लगा। उसने अपनी पत्नी सुन्दरी को भी साथ ले जाने का आग्रह किया, पर अत्यन्त निविण्ण रहने के कारण सुन्दरी ने बहाना बनाकर कहा- मेरा शरीर अस्वस्थ है, पेट में शूल उठता है, निद्रा भी नहीं आती है, अतः इस असमर्थ अवस्था में प्रापके साथ मेरा चलना अनुचित जब सागरदत्त को यह बात मालूम हुई तो उसने अपने पुत्र को समझाया- बेटा, जब बहू की जाने की इच्छा नहीं है तो उसे यहीं छोड़ जाना ज्यादा अच्छा है । यशवर्द्धन व्यापार के लिए चला गया और सागरदत्त ने सुन्दरी के रहने की व्यवस्था भवन की तीसरी मंजिल पर कर दी । एक दिन वह दर्पण हाथ में लिए हुए प्रासाद के झरोखे में बैठकर अपने केश संवार रही थी। इतने में राजकुमार तोसली अपने कतिपय स्नेही मित्रों के साथ उसी रास्ते से निकला । दोनों की दृष्टि एक हुई । सुन्दरी को देखकर राजकुमार ने निम्न गाथा पढ़ी :-- अणुरूवगुणं अणुरूवजोन्वणं माणुसं न जस्सत्थि । कि तण जियंतणं पि मामि नवरं मनो एसो ॥ क० को०, पृष्ठ ४८ --कथाकोष प्रकरण, पृष्ठ ३६-५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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