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आत्मनिवेदन
प्राकृत-कथा - साहित्य को सर्वाधिक समृद्ध बनाने का श्रेय हरिभद्र और उनके शिष्य उद्योतनसूरि को है । हरिभद्र ने समराइच्चकहा- जैसे विशाल कथाग्रन्थ का निर्माण कर प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में बाणभट्ट का कार्य सम्पादन किया है । दशकालिक की वृत्ति में उपलब्ध होने वाली लघु कथाएं उपदेश और शैली की दृष्टि से हृदयावर्जक हैं । उपदेशपद भी प्राकृत कथा की दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । अतएव हरिभद्र की प्राकृत-कथाओं का अध्ययन करना केवल प्राकृत साहित्य की दृष्टि से ही उपयोगी नहीं है, अपितु भारतीय कथा - साहित्य की दृष्टि से भी । जिस प्रकार हरिभद्र ने पालि जातक ग्रन्थों से कथाभिप्रायों को ग्रहण किया है, उसी प्रकार हरिभद्र की प्राकृत-कथाओं से भी कई कथानक रूढ़ियों का विकास हुआ है । यशोधर की लोकप्रिय कथा का आरम्भ उपलब्ध साहित्य में समराइच्चकहा में ही मिलता है । इसके पश्चात् ही वादिराज एवं सोमदेव आदि ने उक्त कथानक का विकास किया है । संस्कृति, समाज, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान संबंधी चर्चाओं का यह ग्रन्थ एक प्रकार से कोश है । प्राचीन भारत में सम्पादित किये जाने वाले जल-स्थलीय व्यापारों का जितना स्पष्ट और विस्तृत विवेचन समराइच्चकहा में है, उतना अन्य किसी एक ग्रन्थ में नहीं है । श्रतएव आदरणीय डॉ० एच० एल० जैन, एम० ए०, एल-एल० बी०, डी० लिट्०, जो कि उस समय राजकीय वैशाली स्नातकोत्तर शिक्षा एवं शोध संस्थान, मुजफ्फरपुर के निदेशक थे, के परामर्शानुसार हरिभद्र की प्राकृत-कथाओं के अध्ययन को शोध-प्रबन्ध के रूप में ग्रहण किया गया ।
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श्रारा से मुजफ्फरपुर का मार्ग दुर्गम रहने के कारण श्रादरणीय डॉ० एन० टाटिया, एम० , डी० लिट्० तत्कालीन रिसर्च प्रोफेसर, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा से निर्देशन कार्य सम्पन्न करने का अनुरोध किया । आपकी कृपापूर्ण स्वीकृति प्राप्त होते ही उक्त विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बिहार विश्वविद्यालय को प्रस्तुत की गयी । कार्य के सम्पादन में समय-समय पर डॉ० टाटिया जी द्वारा पर्याप्त सहायता प्राप्त होती रही है
।
अतएव मैं आपके प्रति कृतज्ञ
हूं ।
शोध-प्रबन्ध को प्राद्योपान्त सुनकर बहुमूल्य सुझाव डॉ० एच० एल० जैन से प्राप्त हुए और तदनुसार शोध-प्रबन्ध के विषय में संशोधन एवं परिवर्द्धन सम्पन्न किया गया है । श्रतएव में डॉ० जैन के प्रति अत्यन्त आभारी हूं, जिन्होंने अपने बहुमूल्य समय का दान मुझे सदैव दिया है ।
सहयोगी मित्रों में चादरणीय प्रो० श्री जगदीश पांडेयजी, अंग्रेजी विभाग, एच० डी० जैन कालेज, आरा (मगध विश्वविद्यालय ) से कथाओं के शिल्प एवं रूपगठन में पाश्चात्य समीक्षा-पद्धति
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