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वह स्वरूप जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का नहीं है जैनदर्शन का अनेकान्तवाद उससे भिन्न प्रकार का है ।
अब यहां इस बात का विचार करना बाकी रह जाता है कि जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का वास्तव स्वरूप क्या है-अर्थात् जैन दर्शन, एक ही पदार्थ को सत् असत् उभय रूप किस प्रकार से मानता है तथा उसकी मान्यता में भी विरोध का प्रसार हो सकता है या कि नहीं ।
जैन दर्शनको कोई भी प्रतीयमान व असत् नित्य अथवा अनित्य रूप से मत में वस्तु मात्र ही, अनेकान्त अर्थात् सत्व, असत्व नित्यत्व अनित्यत्व आदि सभी वस्तु के धर्म हैं वस्तु में जिस प्रकार सत्व वा नित्यत्व रहता है उसी प्रकार असत्व और अनित्यत्व भी विद्यमान है + परन्तु एक ही रूप से नहीं किन्तु भिन्न रूप से अर्थात् जिस रूप से वस्तु में सत्व या नित्यत्व का निवास है उसी रूप से उसमें असत्व वा अनित्व को स्थान नहीं किंतु सत्वादि किसी और रूप से वस्तु में रहते हैं और असत्वादि किसी भिन्न प्रकार से निवास करते हैं इस तरह, प्रकार भेद या अपेक्षाभेद से दोनों ही धर्म वस्तु में मौजूद हैं अतः सापेक्षतया वस्तु सत् अथच असत् उभय रूप है । इसी प्रकार अपेक्षा - कृत भेद से वस्तु में नित्यानित्यत्व आदि धर्म भी मौजूद हैं। इस दशा में विरोध की कोई आशंका नहीं रहती ।
पदार्थ एकान्ततया सत् अभिमत नहीं । उसके अनेक धर्मों से युक्त है ।
* वयंखलु जैनेन्द्राः " एक वस्तु सप्रतिपक्षानेकधर्मरूपाधिकरणम्” इत्याचक्षमहे | [प्रमेयरत्न कोष चंद्रप्रभ सूरिः पृ० ५ ]
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