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________________ बन्ध और मोक्ष : २७५ माने कि बुद्धि आदि गुण आत्मा से कथंचिद् अभिन्न हैं तो वैसा मानने से निम्नांकित दोष आते हैं १. सिद्धान्त विरोध नामक दोष आता है क्योंकि नैयायिकादि मत में कथं चिद्भाव मान्य नहीं है। २. दूसरी बात यह कि कथंचिद् अभेद मानने पर बुद्धि आदि गुणों का अत्यन्त उच्छेद नहीं हो सकता। ३. तीसरा दोष यह है कि कथंचिद् अभिन्न सिद्धान्त जैन मानते हैं, अतः इससे जैन मत की सिद्धि हो जाएगी। अतः, उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोक्ष में आत्मा के बुद्धि आदि गुणों का उच्छेद नहीं होता। 'सन्तानत्वात्' हेतु भी ठीक नहीं है : न्याय-वैशेषिकों ने मोक्ष में आत्मा के बुद्धि आदि गुणों के उच्छेद हेतु यह तर्क दिया था कि दीपक की सन्तान-परम्परा को तरह आत्मा के बुद्धि आदि विशेष गुणों की सन्तान-परम्परा का उच्छेद हो जाता है। यहाँ 'सन्तानत्वात्' हेतु विरुद्ध हेत्वाभास से दूषित है [विपरीत साध्य को सिद्ध करता है] । कार्य-कारण क्षणों का प्रवाह सन्तान है, किन्तु इस सन्तान का लक्षण एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य तत्त्व में नहीं बनता। इसके विपरीत कथंचिद् नित्य, कथंचिद् अनित्य सिद्धान्त में ही सन्तान का स्वरूप घटित होने से 'सन्तानत्वात्' हेतु से कथंचिद् नित्य एवं कथंचिद् अनित्य की सिद्धि होती है । अतः, विरुद्ध हेत्वाभाव से दूषित होने के कारण यह हेतु बुद्धि आदि गुणों के मोक्ष में उच्छेद-रूप साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता है. । दूसरी विचारणीय बात यह है कि 'सन्तानत्व'-हेतु सामान्य है या विशेष ? यदि इस हेतु को सामान्य माना जाए, तो अनैकान्तिक दोष आता है, (हेतु का विपक्ष में भी रहना अनैकान्तिक दोष है) क्योंकि गगन आदि में भी 'सन्तानत्व'-हेतु रहता है, किन्तु उसका अत्यन्त उच्छेद नहीं होता । ३ इसी प्रकार, 'सन्तानत्व'-हेतु को विशेष मानना ठोक नहीं है, क्योंकि इस विषय में भी विकल्प होते हैं कि 'सन्तानत्व' हेतु उत्पादन-उपादेयभूत बुद्धि आदि क्षण-विशेष रूप है अथवा पूर्वापर सामान्य जाति क्षण प्रवाह-रूप ? प्रथम विकल्प असाधा१. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८२६ । २. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८२७ । (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३१७ । (ग) षड्दर्शनसमुच्चय, टीका : गुणरत्न, पृ० २८६ । ३. वही। ४, वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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