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जैन देवकुल का विकास ] (ख) परवर्ती काल (छठी से १२ वीं शती ई० तक)
परवर्ती काल में विवरणों एवं लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से जैन देवकुल का विकास हआ। इस काल में जैन देवकूल के विकास के अध्ययन के लिए छठी से बारहवीं शती ई० या आवश्यकतानुसार उसके बाद की सामग्री का उपयोग किया गया है। आगम ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयों को संक्षेप या विस्तार से समझाने के लिए छठी-सातवीं शती ई० में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका ग्रन्थों की रचना की गई जिन्हें आगम का अंग माना गया ।२।
___आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य ६३-शलाका-पुरुषों के जीवन से सम्बन्धित कई श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों को रचना की गई। कहावली (भद्रेश्वरकृत-श्वेताम्बर) और तिलोयपण्णत्ति (यतिवृषभकृत-दिगम्बर) ६३-शलाकापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित ल० आठवीं शती ई० के दो प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं। ६३-शलाका-पुरुषों से सम्बन्धित अन्य प्रमुख ग्रन्थ महापुराण (जिनसेन एवं गुणभद्र कृत-९ वीं शती ई०), तिसट्टि-महापुरिसगुणलंकारु (पुष्पदन्तकृत-९६५ ई०) एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (हेमचन्द्रकृत-१२ वीं शती ई० का उत्तरार्ध) हैं।४।
ल० छठी शती ई० से चरित एवं पुराण ग्रन्थों की रचना भी प्रारम्भ हुई। श्वेताम्बर रचनाओं को 'चरित' और दिगम्बर रचनाओं को 'पुराण' एवं 'चरित' दोनों की संज्ञा दी गई। इनमें किसी जिन या शलाका-पुरुष का जीवन चरित विस्तार से वर्णित है। मुख्यतः ऋषभ, सुमति, सुपार्श्व, विमल, धर्म, वासुपूज्य, शान्ति, नेमि, पार्श्व एवं महावीर जिनों के चरित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इनके अतिरिक्त चतुविशतिका (बप्पभट्टिसूरिकृत-७४३-८३८ ई०), निर्वाणकलिका (ल०११ वीं-१२वीं शती ई०),प्रतिष्ठासारसंग्रह (१२वीं शती ई०),मन्त्राधिराजकल्प (ल०१२ वीं शती ई०), त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, चविंशति-जिन-चरित्र (अमरचन्दसूरि-१२४१ ई०), प्रतिष्ठासारोद्धार (१३ वीं शती ई० का पूर्वार्ध), प्रतिष्टातिलकम् (१५४३ ई०) एवं आचारदिनकर (१४१२ ई०) जैसे प्रतिमा-लाक्षणिक ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिनमें प्रतिमानिरूपण से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख हैं। सभी उपलब्ध जैन लाक्षणिक ग्रन्थों की रचना गुजरात और राजस्थान में हई । देवकुल में वृद्धि और उसका स्वरूप
ल० छठी से दसवीं शती ई० के मध्य का संक्रमण काल अन्य धर्मों एवं सम्बधित कलाओं के समान जैन धर्म एवं कला में भी नवीन प्रवृत्तियों एवं तान्त्रिक प्रभाव का युग रहा है । तान्त्रिक प्रभाव के परिणामस्वरूप जैन धर्म में देवकुल के देवों की संख्या और उनके धार्मिक कृत्यों में तीव्रगति से वृद्धि और परिवर्तन हुआ। विभिन्न लाक्षणिक ग्रन्थों की रचना के कारण कला में परम्परा के निश्चित निर्वाह की बाध्यता से एक यांत्रिकता सी आ गई। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में जैन देवकुल का विकास मूलतः समरूप रहा। परवर्ती युग में जैन देवकुल में २४ जिन एवं उनके यक्ष-यक्षी युगल, ६३-शलाका-पुरुष, १६ महाविद्या, अष्ट-दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, गणेश, ब्रह्मशान्ति एवं कपद्दि यक्ष, ६४-योगिनी, शान्तिदेवी, जिनों के माता-पिता एवं बाहबली आदि सम्मिलित थे। इसी समय इन देवों की स्वतन्त्र लाक्षणिक विशेषताएं भी निर्धारित हुई।
. जैन धर्म प्रारम्भ से ही व्यापारियों एवं व्यवसायियों में विशेष लोकप्रिय था। जिनों के पूजन से भोतिक या सांसारिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति सम्भव न थी, जब कि व्यापारियों एवं सामान्य जनों में इसकी आकांक्षा बढ़ती जा रही
१ इनमें आचारदिनकर (१४१२ ई०), रूपपण्डन और देवतामूलिप्रकरण (१५ वीं शती ई०), तथा प्रतिष्ठातिलकम् . (१५४३ ई०) प्रमुख हैं। २ जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १९६२, पृ० ७२-७३ ३ ग्रन्थ की रचना ११६० से ११७२ ई० के मध्य हुई-विण्टरनित्ज, एम०, पू०नि०, पृ० ५०५ ४ ८६८ ई० के चउपन्नमहापुरिसचरिय (शीलांकाचार्यकृत) में ५४ महापुरुषों का ही चरित्र वणित है। ५ विण्टरनित्ज, एम०, पू०नि०, पृ० ५१०-१७ ..
६ स्ट००आ०, पृ० १६ ७ केवल देवों के प्रतिमा लाक्षणिक स्वरूपों के सन्दर्भ में भिन्नता प्राप्त होती है।
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