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________________ [जैन प्रतिमाविज्ञान कालीन सामग्रियों की प्राप्ति से होती है। जहां श्वेताम्बरों ने आगमों को संकलित कर यथाशक्ति सुरक्षित रखने का यत्न किया वहीं दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद (१५६ ई०) आगमों का मौलिक स्वरूप विलुप्त हो गया। ___ आगम साहित्य के अतिरिक्त कल्पसूत्र और पउमचरिय भी प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं। जैन परम्परा में कल्पसूत्र के कर्ता भद्रबाहु की मृत्यु का समय महावीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद (ई० पू० ३५७) है।3 पर ग्रन्थ की सामग्री के आधार पर यू० पी० शाह इसे तीसरी शती ई० के कुछ पहले की रचना मानते हैं।४ पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि के अनुसार पउमचरिय की तिथि ४ ई० (महावीर निर्वाण के ५३० वर्ष बाद) है। ग्रन्थ की सामग्री के आधार पर जैकोबी इसे तीसरी शती ई० की रचना मानते हैं। चौबीस जिनों की धारणा चौबीस जिनों की धारणा जैन धर्म की धुरी है। जैन देवकुल के अन्य देवों की कल्पना सामान्यतः इन्हीं जिनों से सम्बद्ध एवं उनके सहायक रूप में हुई है। जिनों को देवाधिदेव और इन्द्र आदि देवों के मध्य वन्दनीय होने के कारण श्रेष्ठ कहा गया है। जिनों को ईश्वर का अवतार या अंश नहीं माना गया है। इनका जीव भी अतीत में सामान्य व्यक्ति की तरह ही वासना और कर्म बन्धन में लिप्त था, पर आत्म मनन, साधना एवं तपश्चर्या के परिणामस्वरूप उसने कर्मबन्धन से मुक्त होकर केवल-ज्ञान की प्राप्ति की। कर्म एवं वासना पर विजय प्राप्ति के कारण इन्हें 'जिन' कहा गया, जिसका शाब्दिक अर्थ विजेता है । कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के सम्मिलित तीर्थ की स्थापना करने के कारण इन्हें 'तीर्थंकर' भी कहा गया । जिनों एवं अन्य मुक्त आत्माओं में आन्तरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। सामान्य मुक्त आत्माएं केवल स्वयं को ही मुक्त करती हैं, वे जिनों के समान धर्म प्रचारक नहीं होती। विद्वान् २४ जिनों में केवल अन्तिम दो जिनों, पार्श्वनाथ एवं महावीर (या वर्धमान) को ही ऐतिहासिक मानते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र (अध्याय २३) में पार्श्वनाथ और महावीर के दो शिष्यों, केसी और गौतम, के मध्य जैन संघ के सम्बन्ध में हुए वार्तालाप का उल्लेख तथा महावीर की यह उक्ति कि 'जो कुछ पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है मैं वही कह रहा हूं', पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध करते हैं। २४ जिनों की प्राचीनतम सूची सम्प्रति समवायांगसूत्र (चौथा अंग) में प्राप्त होती है। इस सूची में ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदन्त), शीतल, श्रेयांश, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व एवं वर्धमान के नाम हैं । इस सूची को ही कालान्तर में ० १ अंगविज्जा, सं० मुनिपुण्यविजय, बनारस,१९५७, पृ०५७ २ विण्टरनित्ज, एम०, पू०नि०, पृ० ४३३ .३ वर्तमान कल्पसूत्र में तीन अलग-अलग अन्थों को एक साथ संकलित किया गया है, जिन सबका कर्ता भद्रबाह को नहीं स्वीकार किया जा सकता–विण्टरनित्ज, एम०, पू०नि०, पृ० ४६२ ४ शाह, यू० पी०, 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकानोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० ३ ५ पउमचरिय, भाग १, सं० एच० जैकोबी, वाराणसी, १९६२, पृ० ८ ६ समवायांग सूत्र १८, पउमचरिय १.१-२, ३८-४२ ७ हस्तीमल, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, खं० १, जयपुर, १९७१, १०४६-४७ . ८ जैकोबी, एच०,जैन सूत्रज, भाग २, सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट,खं० ४५, दिल्ली,१९७३ (पु०म०), पृ०११९-२९ ९ व्याख्या प्रज्ञप्ति ५.९.२२७ १० जम्बुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणाए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तं जहा-उसम, अजिय, सम्भव, अभिनन्दण, सुमह, पउमप्पह, सुपास, चन्दप्पह, सुविहिपुप्फदंत, सायल, सिज्जंस, वासुपुज्ज, विमल, अनन्त, धम्म, सन्ति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्वय, णमि, मि, पास, वड्डमाणोय । समवायांगसूत्र १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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