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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
ह्वेनसांग ने कलिंग में जैन धर्म की विद्यमानता का उल्लेख किया है, किन्तु खारवेल के पश्चात् केशरी वंश के उद्योतकेशरी (१०वीं-११वीं शती ई०) के अतिरिक्त किसी अन्य शासक ने जैन धर्म को स्पष्ट संरक्षण या समर्थन नहीं दिया। पर प्राचीन परम्परा एवं व्यापारिक पृष्ठभूमि के कारण ल. आठवीं-नवीं शती ई० से बारहवीं शती ई० तक जैन धर्म उडीसा में (विशेषकर उदयगिरि-खण्डगिरि गुफाओं में) जीवित रहा जिसकी साक्षी विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त होनेवाली जैन मुर्तियां हैं। उद्योत केशरी के ललितेन्दु केशरी गुफा (या सिन्धराजा गुफा) लेख से ज्ञात होता है कि उसने कुमार पर्वत (खण्डगिरि का पुराना नाम) पर खण्डित तालाबों एवं मन्दिरों का पुननिर्माण करवा कर २४ जिनों की मतियां स्थापित करवाई। लेख से यह भी ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र में धार्मिक नियमों का कठोरता से पालन करने वाले अनेक जैन साधू रहते थे । कटक जिले में जाजपुर स्थित अखंडलेश्वर मन्दिर एवं मैत्रक मन्दिर समूह में सुरक्षित जैन मूर्तियां प्रमाणित करती हैं कि इस शाक्त क्षेत्र में भी जैन धर्म लोकप्रिय था। पुरी जिले में स्थित उदयगिरि-खण्डगिरि की जैन गुफाओं के निर्माण की व्यापारिक पृष्ठभूमि भी थी। जैन ग्रंथों में पुरिमा या पुरिया (पुरी) का व्यापार के केन्द्र के रूप में उल्लेख है ।
प्रस्तुत अध्ययन में बंगाल, विभाजन के पूर्व के बंगाल का सूचक है। सातवीं शती ई० के बाद बंगाल में जैन धर्म की स्थिति को सूचना देने वाले साहित्यिक एवं अभिलेखिक साक्ष्य नहीं प्राप्त होते । फिर भी विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त होने वाली मुर्तियां जैन धर्म की विद्यमानता प्रमाणित करती हैं। बौद्ध धर्मावलंबी पाल शासकों के कारण बंगाल में जैन धर्म का पराभव हआ। पर जैन ग्रंथ बप्पभट्टिचरित में एक स्थल पर उल्लेख है कि विद्या के महान प्रेमी धर्मपाल ने बौद्ध विद्वानों एवं आचार्यों के अतिरिक्त हिन्दू एवं जैन विद्वानों का भी सम्मान किया था। जैन आचार्य बप्पभट्टि का उसके दरबार में सम्मान था। बंगाल का पर्याप्त व्यापारिक महत्व भी था। व्यापार के अनुकूल वातावरण के कारण ही राजकीय संरक्षण के अभाव में भी जैन धर्म बंगाल में किसी न किसी रूप में बारहवीं शती ई. तक विद्यमान रहा। ताम्रलिप्ति प्रमुख सामुद्रिक बन्दरगाहों में से था।
१ एपि०इण्डि०, खं० १३, पृ० १६५-६६, लेख सं० १६; जै०शि०सं०, भाग ४, पृ० ९३ २ जैन, जे०सी०, पू०नि०, पृ० ३२५ ३ प्रभावक चरित, पृ० ९४-९७; चौधरी, गुलाबचन्द्र, पू०नि०, पृ० ५६ ४ जैन, जे०सी०, पू०नि०, पृ० ३४२; गोपाल, एल०, पू०नि०, पृ० १२६
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