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________________ निष्कर्ष ] २५३ बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल में यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां नगण्य हैं । केवल चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती (?) की कुछ स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। उड़ीसा की नवमुनि एवं बारभुजो गुफाओं (११ वी-१२ वीं शती ई०) में क्रमशः सात और चौबीस यक्षियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं (चित्र ५९)। दक्षिण भारत में गोमुख, कुबेर, धरणेन्द्र एवं मातंग यक्षों तथा चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, अम्बिका, पद्मावती एवं सिद्धायिका यक्षियों की मूर्तियां बनीं। यक्षियों में ज्वालामालिनी, अम्बिका एवं पद्मावती सर्वाधिक लोकप्रिय थीं। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में २४ जिनों सहित जिन ६३ शलाकापुरुषों के उल्लेख हैं, उनकी सूची सदैव स्थिर रही है। इस सूची में २४ जिनों के अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं। जैन शिल्प में २४ जिनों के अतिरिक्त अन्य शलाकापुरुषों में से कवल बल गों के अतिरिक्त अन्य शलाकापुरुषों में से केवल बलराम, कृष्ण, राम और भरत की ही मूर्तियां मिलती हैं। बलराम और कृष्ण के अंकन कुषाण युग में तथा राम और भरत के अंकन दसवीं-बारहवीं शती ई० में हुए । श्रीलक्ष्मी और सरस्वती के उल्लेख प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में हैं। सरस्वती का अंकन कुषाण युग में और श्री लक्ष्मी का अंकन दसवीं शती ई० में हुआ । जैन परम्परा में इन्द्र का जिनों के प्रधान सेवक के रूप में उल्लेख है और उसकी मूर्तियां ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० में बनीं। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में उल्लिखित नैगमेषी को कुषाण काल में ही मूर्त अभिव्यक्ति मिली । शान्तिदेवी, गणेश, ब्रह्मशान्ति एवं कपर्दि यक्षों के उल्लेख और उनकी मूर्तियां दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की हैं (चित्र ७७)। जैन देवकुल में जिनों एवं यक्ष-यक्षियों के बाद सर्वाधिक प्रतिष्ठा विद्याओं को मिली । स्थानांगसूत्र, सूत्रकृतांग, नायाधम्मकहाओ और पउमचरिय जैसे प्रारम्भिक एवं हरिवंशपुराण, वसुदेवहिण्डी और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैसे परवर्ती (छठी-१२ वीं शती ई०) ग्रन्थों में विद्याओं के अनेक उल्लेख हैं। जैन ग्रन्थों में वर्णित अनेक विद्याओं में से १६ विद्याओं को लेकर ल. नवीं शती ई० में १६ विद्याओं की एक सूची निर्धारित हुई । ल० नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य इन्हीं १६ विद्याओं के ग्रन्थों में प्रतिमालक्षण निर्धारित हुए और शिल्प में मूर्तियां बनीं । १६ विद्याओं की प्रारम्भिकतम सूचियां तिजयपहुत्त (९ वीं शती ई०), संहितासार (९३९ ई०) एवं स्तुति चतुर्विशतिका (ल० ९७३ ई०) में हैं। बप्पट्टिसूरि की चतुर्विशतिका (७४३-८३८ ई० ) में सर्वप्रथम १६ में से १५ विद्याओं की लाक्षणिक विशेषताएं निरूपित हई। सभी १६ विद्याओं की लाक्षणिक विशेषताओं का निर्धारण सर्वप्रथम शोभनमुनि की स्तुति चतुविशतिका में हुआ । विद्याओं की प्राचीनतम मूर्तियां ओसिया के महावीर मन्दिर (ल० ८ वीं-९ वीं शती ई०) से मिली हैं। नवीं से तेरहवीं शती ई. के मध्य गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर जैन मन्दिरों में विद्याओं की अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हई। १६ विद्याओं के सामूहिक चित्रण के भी प्रयास किये गये जिसके चार उदाहरण क्रमश: कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर (११ वीं शती ई०) और आबू के विमलवसही (दो उदाहरण : रंगमण्डप और देवकुलिका ४१, १२ वीं शती ई०) एवं लूणवसही (रंगमण्डप, १२३० ई०) से मिले हैं (चित्र ७८) । दिगंबर स्थलों पर विद्याओं के चित्रण का एकमात्र सम्भावित उदाहरण खजुराहो के आदिनाथ मन्दिर की भित्ति पर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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