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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] में यक्ष के केवल पांच ही करों के आयुध उल्लिखित हैं, जो शूल, शक्ति, वज्र, खेटक एवं डमरु हैं ।' उल्लेखनीय है कि दिगंबर परम्परा में यक्ष को त्रिनेत्र नहीं बताया गया है । श्वेतांबर परम्परा में भृकुटि का त्रिनेत्र होना और उसके साथ वृषभवाहन एवं परश का प्रदर्शन शिव का प्रभाव प्रतीत होता है। दिगंबर परम्परा में भी भृकुटि का वाहन नन्दी ही है। हिन्दू ग्रन्थों में शिव के भृकुटि स्वरूप ग्रहण करने का भी उल्लेख प्राप्त होता है। दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर ग्रन्थ में वृषभारूढ़ यक्ष को चतुर्मुख एवं अष्टभुज बताया गया है जिसके दक्षिण करों में खड्ग, बर्ची (या शंकु), पुष्प, अभयमुद्रा एवं वाम में फलक, कामुक, शर, कटकमुद्रा वर्णित हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में यक्ष चतुर्मुख एवं अष्टभुज है, पर उसका नाम विद्युत्प्रभ बताया गया है। उसका वाहन हंस है और उसके करों में असि, फलक, इषु, चाप, चक्र, अंकुश, वरदमुद्रा एवं पुष्प का उल्लेख है। समान लक्षणों का उल्लेख करने वाले यक्ष-यक्षी-लक्षण में यक्ष का वाहन वृषभ है और एक हाथ में पुष्प के स्थान पर पद्म प्राप्त होता है। दक्षिण भारत के दोनों परम्पराओं के विवरण सामान्यतः उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान हैं। भृकुटि की एक भी स्वतन्त्र मूर्ति नहीं मिली है। लूणवसही की देवकुलिका १९ की नमिनाथ की मूर्ति (१२३३ ई०) में यक्ष सर्वानुभूति है। (२१) गान्धारी (या चामुण्डा) यक्षी शास्त्रीय परम्परा गान्धारो (या चामुण्डा) जिन नमिनाथ की यक्षी है। श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा गान्धारी (या मालिनी) का वाहन हंस और दिगंबर परम्परा में चामुण्डा (या कुसुममालिनी) का वाहन मकर है। श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में हंसवाहना गान्धारी के दाहिने हाथों में वरदमुद्रा, खड्ग एवं बायें में बीजपूरक, कुम्म (या कुंत?) का उल्लेख है। प्रवचनसारोद्धार, मन्त्राधिराजकल्प एवं आचारदिनकर में कुम्भ के स्थान पर क्रमशः शूल, फलक एवं शकुन्त के उल्लेख हैं।"दो ग्रन्थों में वाम करों में फल के प्रदर्शन का निर्देश है। देवतामतिप्रकरण में हंसवाहना यक्षी अष्टभुजा है और अक्षमाला, वज्र, परशु, नकुल, वरदमुद्रा, खड्ग, खेटक एवं मातुलिंग (लुंग) से युक्त है। १ शलशक्ति वज्रखेटा ? डमरु कुटिस्तथा । अपराजितपृच्छा २२१.५४ २ रचित भृकुटिबन्धं नन्दिना द्वारि रुद्धे । हरिविलास । द्रष्टव्य, भट्टाचार्य, बी० सी०, पू०नि०, पृ० ११५ ३ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २०८ ४ नमेगान्धारी देवी श्वेतां हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदखड़गयुक्तदक्षिणभुजद्वयां बीजपूरकुम्भ-(कुन्त ?)-युतवामपाणिद्वयां चेति । निर्वाणकलिका १८.२१ ५ प्रवचनसारोद्धार २१, पृ० ९४; मन्त्राधिराजकल्प ३.६३; आचारदिनकर ३४, पृ० १७७ । शकुन्त पक्षी एवं कुन्त दोनों का सूचक हो सकता है। ६ ""वामाभ्यां बीजपूरिभ्यां बाहुभ्यामुपशोभिता । त्रिश०पु०च० ७.११.१००-१०१; द्रष्टव्य, पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-नमिनाथ २०-२१ ७ अक्षवज्रपरशुनकुलं मथानस्तु गान्धारी यक्षिणी। वरखड्गखेट लुंगं हंसारूढास्तिता कायो । देवतामूर्तिप्रकरण ७.५९ २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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