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________________ २०८ जैन प्रतिमाविज्ञान (१७) बला (या जया) यक्षी शास्त्रीय परम्परा . बला (या जया) जिन कुंथुनाथ की यक्षी है। श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा बला' मयूरवाहना और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा जया शूकरवाहना है । श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में मयूरवाहना बला के दाहिने हाथों में बीजपूरक एवं शूल और बायें में मुषुण्ढि (या मुषंढी) एवं पद्म का वर्णन है । आचारदिनकर एवं देवतामूर्तिप्रकरण में शूल के स्थान पर त्रिशूल का उल्लेख है। आचारदिनकर में दोनों वाम करों में मुषुण्डि के प्रदर्शन का निर्देश है। मन्त्राधिराजकल्प में मुषुण्डि के स्थान पर दो करों में पद्म का उल्लेख है। दिगंबर परम्परा-प्रतिष्ठासारसंग्रह में शूकरवाहना जया के हाथों में शंख, खड्ग, चक्र एवं वरदमुद्रा का वर्णन है। अपराजितपृच्छा में जया को षड्भुजा बताया गया है और उसके हाथों में वज्र, चक्र, पाश, अंकुश, फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है। बला के साथ मयूरवाहन एवं शूल का प्रदर्शन हिन्दू कौमारी या जैन महाविद्या प्रज्ञप्ति का प्रभाव है । जया के निरूपण में शूकरवाहन एवं हाथों में शंख, खड्ग और चक्र का प्रदर्शन हिन्दू वाराही या बौद्ध मारीची से प्रभ सकता है।' दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा यक्षी मयूरवाहना है । यक्षी के दो ऊपरी हाथों में चक्र और शेष में अभयमुद्रा एवं खड्ग का उल्लेख है । आयुधों के सन्दर्भ में उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा का प्रभाव दृष्टिगत होता है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में द्विभुजा यक्षी का वाहन हंस है और उसके हाथों में वरदमुद्रा एवं नीलोत्पल वर्णित हैं। यक्ष-यक्षी-लक्षण में कृष्ण शूकर पर आरूढ़ चतुर्भुजा यक्षी के करों में उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान ही शंख, खड्ग, चक्र एवं वरदमुद्रा का उल्लेख है।' १ श्वेतांबर परम्परा में यक्षी का अच्यता एवं गांधारिणी नामों से भी उल्लेख हुआ है । २ मुषण्ढी स्याद् दारुमयी वृत्तायः कीलसंचिता-इति हैमकोशे-निर्वाणकलिका, पृ० ३५ । अर्थात् मुषुण्ढी काष्ठ निर्मित है जिसमें लोहे की कीलें लगी होती हैं। ३ बला देवी गौरवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भुजां बीजपूरकशूलान्वितदक्षिणभुजां मुषुण्ढिपद्यान्वितवामभुजां चेति । निर्वाणकलिका १८.१७; द्रष्टव्य, त्रि०२०पु०च० ७.१.११८-१९, पद्मानन्दमहाकाव्य-परिशिष्ट-कुन्थुनाथ १९-२० ४ शिखिगा सुचतुर्भुजाऽतिपीता फलपूरं दधतीत्रिशूलयुक्तम् । करयोरपसव्ययोश्च सव्ये करयुग्मे तु भृशुण्डिभृद्वलाऽव्यात् ॥ आचारदिनकर ३४, पृ० १७७ गौरवर्णा मयूरस्था बीजपूरत्रिशूलने। (पद्मभुषंधिका ?) चैव स्याद् बला नाम यक्षिणी ॥ देवतामूर्तिप्रकरण ७.४९ ५ गान्धारिणी शिखिगतिः कील बीजपूरशूलान्वितोत्पलयुग्-द्विकरेन्दुगौरा । मन्त्राधिराजकल्प ३.६१ ६ जयदेवी सुवर्णाभा कृष्णशूकरवाहना। संखासिचक्रहस्तासौ वरदाधर्मवत्सला ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.५५ द्रष्टव्य, प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१७१; प्रतिष्ठातिलकम् ७.१७, पृ० ३४५ ७ बचचक्रे पाशांकुशौ फलं च वरदं जया । कनकामा षड्भुजा च कृष्णशूकरसंस्थिता ॥ अपराजितपृच्छा २२१.३१ ८ भट्टाचार्य, बी०सी०, पू०नि०, पृ० १३८ ९ रामचन्द्रन, टी०एन०, पू०नि०, पृ० २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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