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________________ यक्ष - यक्षी प्रतिमाविज्ञान ] २०१ दिगंबर परम्परा – प्रतिष्ठासारसंग्रह में हंसवाहना अनन्तमती के हाथों में धनुष, बाण, फल एवं वरदमुद्रा दिये गये हैं ।' अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों का उल्लेख है । यक्षी के अंकुशा नाम के कारण ही यक्षी के हाथ में अंकुश प्रदर्शित हुआ । ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा की चौथी महाविद्या का नाम वज्रांकुशा है और उसके मुख्य आयुष वज्र एवं अंकुश हैं । दिगंबर परम्परा में यक्षो का नाम ( अनन्तमती) जिन (अनन्तनाथ ) से प्रभावित है | दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में हंसवाहना यक्षी चतुर्भुजा है और उसके ऊपरी हाथों में शर एवं चाप और नीचे के हाथों में अभय एवं कटक - मुद्रा प्रदर्शित हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में मयूरवाहना यक्षी द्विभुजा है और वरदमुद्रा एवं पद्म से युक्त है । यक्ष-यक्षी लक्षण में हंसवाहना यक्षी चतुर्भुजा है और उसके हाथों में धनुष, बाण, फल एवं वरदमुद्रा का उल्लेख है । प्रस्तुत विवरण उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा से प्रभावित है । मूर्ति-परम्परा यक्षी की दो स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां क्रमशः देवगढ़ ( मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं बारभुजी गुफा के सामूहिक अंकनों में उत्कीर्ण हैं । देवगढ़ में अनन्तनाथ के साथ 'अनन्तवीर्या' नाम की सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी आमूर्ति है । " यक्षी की दाहिनी भुजा जानु पर स्थित है और बायीं में चामर प्रदर्शित है। बारभुजी गुफा में अनन्त के साथ अष्टभुजा यक्षी निरूपित है । यक्षी का वाहन सम्भवतः गर्दभ है । यक्षी के दक्षिण करों में वरदमुद्रा, कटार, शूल एवं खड्ग और वाम में दण्ड, वज्र, सनालपद्म, मुद्गर एवं खेटक प्रदर्शित हैं । यक्षी का चित्रण परम्परासम्मत नहीं है । विमलवसही की अनन्तनाथ की मूर्ति में यक्षी अम्बिका है । (१५) किन्नर यक्ष शास्त्रीय परम्परा गया I किन्नर जिन धर्मनाथ का यक्ष है । दोनों परम्परा के ग्रन्थों में किन्नर यक्ष को त्रिमुख और षड्भुज बताया श्वेतांबर परम्परा - निर्वाणकलिका में किन्नर यक्ष का वाहन कुमं है और उसके दाहिने हाथों में बीजपूरक, गदा, अभयमुद्रा एवं वायें में नकुल, पद्म, अक्षमाला का उल्लेख है । अन्य ग्रन्थों में भी यही विशेषताएं वर्णित हैं । ' १ तथानन्तमती हेमवर्णा चैव चतुर्भुजा । चापं बाणं फलं धत्ते वरदा हंसवाहना । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.४९ २ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१६८; प्रतिष्ठातिलकम ७.१४, पृ० ३४५; अपराजितपृच्छा २२१.२८ ३ रामचन्द्रन, टी० एन० पू०नि०, पृ० २०५ ४ श्वेतांबर स्थलों पर वरदमुद्रा, शूल, अंकुश एवं फल से युक्त एक पद्मवाहना देवी का अंकन विशेष लोकप्रिय था । देवी की सम्भावित पहचान अंकुशा से की जा सकती है। पर इस देवी का महाविद्या समूह में अंकन यक्षी से पहचान 'में बाधक है । ५ जि०इ० दे०, पू० १०३, १०६ ६ मित्रा, देबला, पु०नि०, पृ० १३१- लेखिका ने यक्षी को अष्टभुजा बताया है, पर वाम करों में पांच आयुधों का ही उल्लेख किया है । ७ किन्नरयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्णं कूर्मवाहनं षट्भुजं बीजपूरकगदाभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलपद्माक्षमालायुक्तवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.१५ ८ त्रि०श०पु०च० ४.५.१९७-९८ पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट - धर्मनाथ १९ - २०; मन्त्राधिराजकल्प ३.३९; आचारदिनकर ३४, पृ० १७४ २६ Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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