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________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान अक्षसूत्र (अक्षमणि), खेटक एवं दण्डमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है ।" अपराजित पृच्छा में यक्ष को षण्मुख और षड्भुज बताया गया है । यक्ष के चार हाथों में वज्र, धनुष, फल एवं वरदमुद्रा और शेष में बाण का उल्लेख है । चतुर्मुख नाम हिन्दू ब्रह्मा और षण्मुख नाम हिन्दू कुमार ( या कार्तिकेय) से प्रभावित है । साथ ही दोनों परम्पराओं में वाहन के रूप में मयूर का उल्लेख भी हिन्दूदेव कुमार के ही प्रभाव का सूचक है । १९८ दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में षण्मुख एवं द्वादशभुज यक्ष का वाहन कुक्कुट है । ग्रन्थ में केवल एक भुजा से अभयमुद्रा के प्रदर्शन का ही उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में द्वादशभुज यक्ष का वाहन कपि है । यक्ष के आठ हाथों में वरदमुद्रा और शेष चार में खड्ग, खेटक, परशु एवं ज्ञानमुद्रा का उल्लेख है । यक्ष-यक्षी लक्षण में द्वादश- ' भुज यक्ष का वाहन मयूर है और उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान उसके आठ हाथों में परशु एवं शेष चार में फलक, खड्ग, दण्ड एवं अक्षमाला का वर्णन है । 3 यक्ष की एक मी स्वतन्त्र मूर्ति नहीं मिली है । पर राज्य संग्रहालय, लखनऊ की एक विमलनाथ की मूर्ति (जे ७९१, १००९ ई०) में द्विभुज यक्ष आमूर्तित है । यक्ष के अवशिष्ट बायें हाथ में घट है । (१३) विदिता (या वैरोटी) यक्षी शास्त्रीय परम्परा विदिता (या वैरोटी) जिन विमलनाथ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा विदिता का वाहन पद्म और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा वैरोटी का वाहन सर्प है। श्वेतांबर परम्परा — निर्वाणकलिका में पद्मवाहना विदिता के दक्षिण करों में बाण एवं पाश और वाम में धनुष एवं सर्प का वर्णन है । " अन्य ग्रन्थों में भी यही लक्षण निर्दिष्ट हैं दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासार संग्रह में सर्पवाहना वैरोट्या के दो करों में सर्प प्रदर्शित हैं, शेष दो करों के आयुधों का अनुल्लेख है । " प्रतिष्ठासारोद्धार में दो हाथों में सर्प और शेष दो में धनुष एवं बाण के प्रदर्शन का निर्देश है ।" अपराजित पृच्छा में यक्षी षड्भुजा और व्योमयान पर अवस्थित है । उसके दो हाथों में वरदमुद्रा एवं शेष में खड्ग, खेटक, कार्मुक और शर हैं । " १ यक्षो हरित्सपरशूपरिभाष्टपाणिः कौक्षेयकक्षमणिखेटकदण्डमुद्राः । बिभ्रच्चतुर्भिरपरैः शिखिगः किरांकनम्रः प्रवृत्यतुयथार्थं चतुर्मुखाख्यः ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१४१ प्रतिष्ठातिलकम् ७.१३, पृ० ३३५ २ षण्मुखः षड्भुजो वज्रो धनुर्बाणौ फलंवरः । अपराजितपृच्छा २२१.५० ३ रामचन्द्रन, टी० एन० पू०नि०, पृ० २०४ ४ प्रवचनसारोद्धार एवं आचारदिनकर में यक्षी को विजया कहा गया है । ५ विदितां देवीं हरितालवर्णा पद्मारूढां चतुर्भुजां बाणपाशयुक्तदक्षिणपाणि धनुर्नागयुक्तवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.१३ ६ त्रि० श०पु०च० ४.३.१८० - ८१, पद्मानन्द महाकाव्य : परिशिष्ट - विमलस्वामी २१ मन्त्राधिराजकल्प ३.५९; आचारदिनकर ३४, पृ० १७४ ७ वैरोटी नामतौ देवी हरिद्वर्णा चतुर्भुजः । हस्तद्वयेन सप्पौ द्वौ धत्ते घोणसवाहना । प्रतिष्ठासार संग्रह ५.४२ ८ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१६७; द्रष्टव्य, प्रतिष्ठा तिलकम् ७.१३, पृ० ३४४ ९ श्यामवर्णा षड्भुजा द्वो वरदौ खड्गखेटकी । धनुर्बाणो विराटाख्या व्योमयानगता तथा ॥ अपराजित पृच्छा २२१.२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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