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________________ यक्ष - यक्षी - प्रतिमाविज्ञान ] १८७ श्वेतांबर परम्परा — निर्वाणकलिका में द्विभुज विजय त्रिनेत्र है और उसका वाहन हंस है। विजय के दाहिने हाथ में चक्र और बायें में मुद्गर है ।' अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों के उल्लेख हैं । पद्मानन्दमहाकाव्य में चक्र के स्थान पर खड्ग का उल्लेख है । दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासारसंग्रह में चतुर्भुज श्याम त्रिनेत्र है और उसकी भुजाओं में फल, अक्षमाला, परशु एवं वरदमुद्रा 13 ग्रन्थ में वाहन का अनुल्लेख है । प्रतिष्ठासारोद्धार में यक्ष का वाहन कपोत बताया गया है । ४ अपराजित पृच्छा में यक्ष को विजय नाम से सम्बोधित किया गया है और उसके दो हाथों में फल और अक्षमाला के स्थान पर पाश और अभयमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है । " दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर परम्परा में हंस पर आरूढ़ चतुर्भुज यक्ष की एक भुजा से अभयमुद्रा के प्रदर्शन का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में कपोत वाहन से युक्त चतुर्भुज यक्ष के हाथों में कशा, पाश, वरदमुद्रा एवं अंकुश वर्णित हैं । यक्ष-यक्षी लक्षण में कपोत पर आरूढ़ यक्ष त्रिनेत्र है और उसके करों में फल, अक्षमाला, परशु एवं वरदमुद्रा का उल्लेख है । प्रस्तुत विवरण उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा का अनुकरण है । मूर्ति-परम्परा यक्ष की एक भी स्वतन्त्र मूर्ति नहीं मिली है । जिन-संयुक्त मूर्तियों (९वीं - १२वीं शती ई०) में चन्द्रप्रभ का यक्ष सामान्य लक्षणों वाला है । इनमें द्विभुज यक्ष अभयमुद्रा ( या फल ) एवं धन के थैले (या फल या कलश या पुष्प) से युक्त है । देवगढ़ के मन्दिर २१ की मूर्ति (११ वीं शती ई०) में यक्ष चतुर्भुज है और उसके हाथों में अभयमुद्रा, गदा, पद्म एवं फल प्रदर्शित हैं । (८) भृकुटि ( या ज्वालामालिनी) यक्षी शास्त्रीय परम्परा भृकुटि ( या ज्वालामालिनी) जिन चन्द्रप्रभ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा भृकुटि (या ज्वाला) का वाहन वराल (या मराल ) है और दिगंबर परम्परा में अष्टभुजा ज्वालामालिनी का वाहन महिष है । श्वेतांबर परम्परा – निर्वाणकलिका में चतुर्भुजा भृकुटि का वाहन' वराह है और उसकी दाहिनी भुजाओं में खड्ग एवं मुद्गर और बायों में फलक एवं परशु का वर्णन है ।' अन्य ग्रन्थ आयुधों के सन्दर्भ में एकमत हैं, पर वाहन के १ विजययक्षं हरितवर्णं त्रिनेत्रं हंसवाहनं द्विभुजं दक्षिणहस्तेचक्रं वामे मुद्गरमिति । निर्वाणकलिका १८.८ २ त्रि००पु०च० ३.६.१०८; मन्त्राधिराजकल्प ३.३३; आचारदिनकर ३४, पृ० १७४; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट - चन्द्रप्रभ १७; त्रि०श०पु०च० एवं पद्मानन्दमहाकाव्य में यक्ष के त्रिनेत्र होने का उल्लेख नहीं है । ३ चन्द्रप्रभजिनेन्द्रस्य श्यामो यक्षः त्रिलोचनः । फलाक्षसूत्रकं धत्ते परसुं च वरप्रदः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.३१ ४ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१३६ ५ पशुपाशाभयवराः कपोते विजयः स्थितः । अपराजितपृच्छा २२१.४८ ६ रामचन्द्रन, टी०एन० पू०नि०, पृ० २०१ ७ जिन-संयुक्त मूर्तियां देवगढ़, खजुराहो, राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे८८१) एवं इलाहाबाद संग्रहालय (२९५ ) में हैं । ८ ग्रन्थ के पाद टिप्पणी में उसका पाठान्तर विराल दिया है । ९ भृकुटिदेवी पीतवर्णां वराह ( बिडाल ? ) वाहनां चतुर्भुजां । खड्गमुद्गरान्वितदक्षिणभुजां फलकपरशुयुतवामहस्तां चेति ॥ निर्वाणकलिका १८.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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