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________________ १५२ [ जैन प्रतिमाविज्ञान आकिअलाजी गैलरी, बंगाल में हैं।' पक्बीरा ग्राम (पुरुलिया) की दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति में ऋषभ, कुंथु, शान्ति एवं महावीर की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं (चित्र ६८)। अम्बिकानगर (बांकुड़ा) से प्राप्त एक मूर्ति में केवल ऋषभ, चन्द्रप्रभ एवं शान्ति की पहचान सम्भव है। चतुर्विशति-जिन-पट्ट चतुविशति-जिन-पट्टों के उदाहरण ल० दसवीं शती ई० से प्राप्त होते हैं। इन पट्टों की २४ जिन मूर्तियां सामान्यतः प्रातिहार्यों, लांछनों एवं कभी-कभो यक्ष-यक्षी युगलों से युक्त हैं। देवगढ़ में इस प्रकार का ग्यारहवीं शती ई० का एक जिन-पट्ट है जो स्थानीय साह जैन संग्रहालय में सुरक्षित है । पट्ट दो भागों में विभक्त है। पट्र की सभी जिन आकृतियां लांछनों, प्राविहार्यों एवं यक्ष-यक्षी युगलों से युक्त हैं। जिन मूर्तियों के उत्कीर्णन में दोनों मुद्राएं-ध्यान और कायोत्सर्ग-प्रयुक्त हुई है। लांछनों के स्पष्ट न होने के कारण शीतल, वासुपूज्य, अनन्त, धर्मनाथ, शान्ति एवं अर की पहचान सम्भव नहीं है । सुपार्श्व के मस्तक पर सर्पफणों का छत्र नहीं प्रदर्शित है और लांछन भी स्वस्तिक के स्थान पर सर्प है। सभी जिनों के साथ सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। इनकी भुजाओं में अभय-(या वरद-) मुद्रा एवं फल (या पद्म या कलश) हैं। मूर्तियों के निरूपण में जिनों के पारम्परिक क्रम का ध्यान नहीं रखा गया है। कौशाम्बी से प्राप्त एक पट्ट इलाहाबाद संग्रहालय (५०६) में है।" पट्ट पर पांच पंक्तियों में २४ जिनों की ध्यानस्थ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। जिन-समवसरण समवसरण वह देवनिर्मित सभा है, जहां देवता, मनुष्य एवं पशु जिनों के उपदेशों का श्रवण करते हैं। कैवल्य प्राप्ति के बाद प्रत्येक जिन अपना पहला उपदेश समवसरण में ही देते हैं। महापुराण के अनुसार समवसरणों का निर्माण इन्द्र ने किया । सातवीं शती ई० के बाद के जैन ग्रन्थों में जिन समवसरणों के विस्तृत उल्लेख हैं। पर समवसरणों के उदाहरण केवल श्वेतांबर स्थलों से ही मिले हैं। समवसरणों का उत्कीर्णन ल० ग्यारहवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ। समवसरणों के स्वतन्त्र उदाहरणों के अतिरिक्त कुम्भारिया के महावीर एवं शान्तिनाथ मन्दिरों और दिलवाड़ा के विमलवसही एवं लूणवसही में जिनों के कैवल्य प्राप्ति के दृश्य को समवसरणों के माध्यम से ही व्यक्त किया गया है। जैन ग्रन्थों के अनुसार समवसरण तीन प्राचीरों वाला भवन है । इसमें ऊपर (मध्य में) न्यानमुद्रा में एक जिन आकति (पूर्वाभिमुख) बैठी होती है। सभी दिशाओं के श्रोता जिन का दर्शन कर सके, इस उद्देश्य से ब्यंतर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में भी जिन की रत्नमय प्रतिमाएं स्थापित की थीं। समवसरण के प्रत्येक प्राचीर में चार प्रदेश-द्वारों तथा १ दे, सुधीन, पू०नि०, पृ० २७-३० २ बनर्जी, ए०, 'ट्रेसेज ऑव जैनिजम इन बंगाल', ज०यू०पी०हि सो०, खं० २३, भाग १-२, पृ० १६८ ३ मित्रा, देबला, 'सम जैन एन्टिक्विटीज फ्राम बांकुड़ा, वेस्ट बंगाल', ज०ए०सो०बं०, खं० २४, अं० २, पृ० १३३ ४ लांछन एवं यक्ष-यक्षी युगलों के आयुध अधिकांशतः स्पष्ट नहीं हैं। ५ चन्द्र, प्रमोद, पू०नि०, पृ० १४७ ६ कुछ अन्य अवसरों पर भी देवताओं द्वारा समवसरणों का निर्माण किया गया। पद्मचरित (२.१०२) और आवश्यक नियुक्ति (गाथा ५४०-४४) में उल्लेख है कि महावीर के विपुलगिरि (राजगृह) आगमन पर एक समवसरण का निर्माण किया गया था। ७ स्ट००आ०, पृ० ८५-९५ ८ त्रि००पु०च० १.३.४२१-७७; भण्डारकर, डी०आर०पू०नि०, पृ०१२५-३०; स्ट००आ०, पृ० ८६-८९ ९ आदिपुराण २३.९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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