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सर्वतोभद्रका जिन मूतियां या जिन चौमुखी
प्रतिमा सर्वतोभद्रिका या सर्वतोभद्र प्रतिमा का अर्थ है वह प्रतिमा जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी है, अर्थात् ऐसा शिल्पकार्यं जिसमें एक ही शिलाखण्ड में चारों ओर चार प्रतिमाएं निरूपित हों । पहली शती ई० में मथुरा में इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ । इन मूर्तियों में चारों दिशाओं में चार जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । ये मूर्तियां या तो एक ही जिन की या अलग-अलग जिनों की होती हैं। ऐसी मूर्तियों को चतुबिम्ब, जिन चौमुखी और चतुर्मुख भी कहा गया R ऐसी प्रतिमाएं दिगंबर स्थलों पर विशेष लोकप्रिय थीं ।
[ जैन प्रतिमाविज्ञान
जिन चौमुखी की धारणा को विद्वानों ने जिन समवसरण की प्रारम्भिक कल्पना पर आधारित और उसमें हुए विकास का सूचक माना है । पर इस प्रभाव को स्वीकार करने में कई कठिनाईयां हैं । समवसरण वह देवनिर्मित सभा है, जहां प्रत्येक जिन कैवल्य प्राप्ति के बाद अपना प्रथम उपदेश देते हैं । समवसरण तीन प्राचीरों वाला भवन है जिसके ऊपरी भाग में अष्ट-प्रातिहार्यों से युक्त जिन ध्यानमुद्रा में (पूर्वाभिमुख ) विराजमान होते हैं। सभी दिशाओं के श्रोता जिन का दर्शन कर सकें, इस उद्देश्य से व्यंतर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में भी उसी जिन की प्रतिमाएं स्थापित की । यह उल्लेख सर्वप्रथम आठवीं-नवीं शती ई० के जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में चार दिशाओं में चार जिन मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता । ऐसी स्थिति में कुषाणकालीन जिन चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों के उत्कीर्णन को समवसरण की धारणा से प्रभावित और उसमें हुए किसी विकास का सूचक नहीं माना जा सकता । आठवीं-नवीं शती ई० के ग्रन्थों में भी समवसरण में किसी एक ही जिन को चार मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख है, जब कि कुषाणकालीन चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों को चित्रित किया गया ।" समवसरण में जिन सदैव ध्यानमुद्रा में आसीन होते हैं, जब कि कुषाणकालीन चौमुखी जिन मूर्तियां कायोत्सर्ग में खड़ी हैं। जहां हमें समकालीन जैन ग्रन्थों में जिन चौमुखी मूर्ति की कल्पना का निश्चित आधार नहीं प्राप्त होता है, वहीं तत्कालीन और पूर्ववर्ती शिल्प में ऐसे एकमुख और बहुमुख शिवलिंग एवं यक्ष मूर्तियां प्राप्त होती हैं जिनसे जिन चौमुखी की धारणा के प्रभावित होने की सम्भावना हो सकती है ।
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१ विस्तार के लिए द्रष्टव्य, एपि ०इण्डि०, खं० २, पृ० २०२-०३, २१० भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० ४८; अग्रवाल, वी० एस० पू०नि०, पृ० २७; दे, सुधीन, 'चौमुख ए सिम्बालिक जैन आर्ट', जैन जर्नल, खं० ६, अं० १, पृ० २७; पाण्डेय, दीनबन्धु, 'प्रतिमा सर्वतोभद्रिका', राज्य संग्रहालय, लखनऊ में २८ और २९ जनवरी १९७२ को जैन कला पर हुए संगोष्ठी में पढ़ा लेख; तिवारी, एम० एन०पी०, 'सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियां या जिन - चौमुखी', संबोधि, खं० ८, अं० १-४ अप्रैल ७९ - जनवरी ८०, पृ० १-७
२ एपि० इण्डि - खं० २, पृ० २११, लेख ४१
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३ स्ट० जे० आ०, पृ० ९४-९५ दे, सुधीन, पू०नि०, पृ० २७ श्रीवास्तव, वी० एन० पू०नि०, पृ० ४५
४ त्रि० श०पु०च० १.३.४२१-६८६; भण्डारकर, डी० आर०, 'जैन आइकनोग्राफी - समवसरण', इण्डि० एण्टि०, खं ४०, पृ० १२५ - ३०
५ मथुरा की १०२३ ई० की एक चौमुखी मूर्ति में ही सर्वप्रथम समवसरण की धारणा को अभिव्यक्ति मिली। पीठिकालेख में उल्लेख है कि यह महावीर की जिन चौमुखी है (वर्धमानश्चतुबिम्ब: ) - द्रष्टव्य, एपि० इण्डि०, खं० २, पृ० २११, लेख ४१
६ मथुरा से कुषाणकालीन एकमुख और पंचमुख शिवलिंगों के उदाहरण मिले हैं। गुडीमल्लम ( दक्षिण भारत) के पहली शती ई० पू० के शिवलिंग में लिंगम के समक्ष स्थानक - मुद्रा में शिव की मानवाकृति उत्कीर्ण है— द्रष्टव्य, बनर्जी, जे० एन०, दि डीवलपमेण्ट ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, पृ० ४६१; भट्टाचार्य, बी०सी० पू०नि०, पृ० ४८; शुक्ल, डी० एन०, प्रतिमाविज्ञान, लखनऊ, १९५६, पृ० ३१५
७ राजघाट (वाराणसी) से मिली परवर्ती शुंगकालीन एक त्रिमुख यक्ष मूर्ति में तीन दिशाओं में यक्ष आकृतियां उत्कीर्ण हैं— द्रष्टव्य, अग्रवाल, पी० के०, 'दि ट्रिपल यक्ष स्टैचू फ्राम राजघाट', छवि, वाराणसी, १९७१, पृ० ३४०-४२
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