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________________ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] १४५ को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग की मूर्तियों में एक ही जिन की दो आकृतियां उत्कीर्ण हैं। इस वर्ग में केवल त्रषभ, सुपार्श्व एवं पार्श्व की ही मूर्तियां हैं। दूसरे वर्ग में लांछन विहीन जिनों की दो मूर्तियां बनी हैं। इस प्रकार पहले और दूसरे वर्गों की द्वितीर्थी मूर्तियों का उद्देश्य एक ही जिन की दो आकृतियों का उत्कीर्णन था। तीसरे वर्ग में भिन्न लांछनों वाली दो जिन मूर्तियां निरूपित हैं। इस वर्ग की मतियों का उद्देश्य सम्भवतः दो भिन्न जिनों को एक स्थान पर साथ-साथ प्रतिष्ठित करना था। सभी वर्गों की मूर्तियों में दोनों जिन आकृतियां कायोत्सर्ग-मुद्रा में निर्वस्त्र खड़ी हैं। जिन मूर्तियां धर्मचक्र से यक्त सिंहासन या साधारण पीठिका पर उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक जिन दो पार्श्ववर्ती चामरधरों, उपासकों, उड़ीयमान मालाधरों, गजों एवं त्रिछत्र, अशोकवृक्ष, भामण्डल और दुन्दुभिवादक की आकृतियों से युक्त हैं। कुछ उदाहरणों में चार के स्थान पर केवल तीन ही चामरधरों एवं उड्डोयमान मालाधरों की आकृतियां उत्कीणित हैं। दसवीं शती ई० में जिनों के लांछन एवं ग्यारहवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी युगलों के उत्कीर्णन प्रारम्भ हुए। दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति खण्डगिरि की गुफा से मिली है और सम्प्रति ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन (९९) में सुरक्षित है (चित्र ६०)। जिनों की पीठिकाओं पर वृषभ और सिंह लांछन उत्कीर्ण हैं। इस प्रकार यह ऋषभ और महावीर की द्वितीर्थी मूर्ति है। ऋषभ जटामुकुट से शोभित हैं पर महावीर की केशरचना गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित है । अलुआरा (मानभूम) से प्राप्त ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति पटना संग्रहालय (१०६८२) में है। लांछनों के आधार पर जिनों की पहचान ऋषभ और महावीर से सम्भव है। खजुराहो से दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की नौ मूर्तियां मिली हैं (चित्र ६१,६३)। सभी में अष्टप्रातिहायं प्रदर्शित हैं । खजुराहो की द्वितीर्थी-जिन-मूर्तियों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे लांछनों से रहित हैं। केवल शान्तिनाथ मन्दिर के आहाते की एक मूर्ति में ही लांछन प्रदर्शित हैं। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि दसवीं शती ई० तक खजुराहो के कलाकार सभी जिनों के लांछनों से परिचित हो चुके थे, और इस परिप्रेक्ष्य में द्वितीर्थी मूर्तियों में लांछनों का अभाव आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। आठ उदाहरणों में प्रत्येक जिन मूर्ति के सिंहासन-छोरों पर द्विभुज या चतुर्भुज यक्षयक्षी निरूपित हैं । द्विभुज यक्ष-यक्षी के करों में अभयमुद्रा (या पद्म) और जलपात्र (या फल) प्रदर्शित हैं। पांच उदाहरणों में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं। चतुर्भुज यक्ष-यक्षी की भुजाओं में सामान्यतः अभयमुद्रा, पद्म (या शक्ति), पद्म (या पद्म से लिपटी पुस्तिका) एवं फल (या जलपात्र) प्रदर्शित हैं। द्वितीर्थों मूर्तियों के परिकर में छोटी जिन आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में नवी से बारहवीं शती ई० के मध्य की ५० से अधिक द्वितीर्थी मूर्तियां हैं। सामान्यतः प्रारिहार्यों से यक्त जिन आकृतियां साधारण पीठिका या सिंहासन पर खड़ी हैं। अधिकांश उदाहरणों में जिनों के लांछन एवं परिकर में छोटी जिन मतियां उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में केवल पहले और तीसरे वर्ग की ही द्वितीर्थी मूर्तियां हैं। पहले वर्ग की मतियों में लटकती जटाओं" या पांच और सात सर्पफणों के छत्रों से शोभित ऋषभ, सुपार्श्व एवं पावं की मूर्तियां हैं। . १ दो आकृतियां मूर्ति के छोरों पर और एक दोनों जिनों के मध्य में उत्कीर्ण हैं। २ चन्दा, आर० पी०, मेडिवल इण्डियन स्कल्पचर इन दि ब्रिटिश म्यूजियम, वाराणसी, १९७२ (पु०मु०), पृ० ७१ ३ प्रसाद, एच० के०, पू०नि०, पृ० २८६ ४ ६ मूर्तियां शान्तिनाथ संग्रहालय (के २५, २६, २८, २९, ३०, ३१) में हैं, और शेष तीन क्रमशः शान्तिनाथ मन्दिर, मन्दिर ३ और पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो (१६५३) में हैं। ५ एक जिन के आसन पर गज-लांछन (अजितनाथ) उत्कीर्ण है पर दूसरे जिन का लांछन स्पष्ट नहीं है। ६ केवल शान्तिनाथ मन्दिर की ११वीं शती ई० की मूर्ति में यक्ष-यक्षी अनुपस्थित हैं। ७ चार उदाहरण ८ दो उदाहरण : मन्दिर १२ को पश्चिमी चहारदीवारी एवं मन्दिर १७ ९ दस उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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