SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन प्रतिमाविज्ञान ] चौथे भाव में मरुभूति का जीव किरणवेग के रूप में उत्पन्न हुआ। तिलका के शासक विद्युत्यति उनके पिता और कनकतिलका उनकी माता थीं । किरणवेग ने निश्चित समय पर अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वयं दीक्षा ग्रहण की और हेमपर्वत पर कायोत्सर्ग में तपस्यारत हो गये। चौथे भव में कमठ का जीव विकराल सर्प हुआ। इस सर्प ने जब किरणवेग को तपस्यारत देखा तो उनके शरीर के चारो ओर लिपट गया और कई स्थानों पर बंध कर उनके प्राण ले लिये। वितान पर वार्तालाप की मुद्रा में किरणवेग की मूर्ति उत्कीर्ण है। समीप ही दो अन्य आकृतियां बैठी हैं। नीचे 'किरणवेग राजा' लिखा है। आगे किरणवेग की कायोत्सर्ग में तपस्या करती मूर्ति है जिसके शरीर में एक सर्प लिपटा है । पांचवे भव में मरुभूति का जीव जम्बूद्रुमावत में देवता हुआ और कमठ का जीव धूमप्रभा के रूप में नरक में उत्पन्न हुआ । छठें भव में मरुभूति शुभंकर नगर के राजा के पुत्र (वज्रनाम) हुए । 2 वज्रनाभ ने उपयुक्त समय पर अपने पुत्र को राज्य प्रदान कर दीक्षा ली । कमठ का जीव छठें भव में भिल्ल कुरंगक हुआ । मुनि वज्रनाभ की मृत्यु पूर्व जन्मों के वैरी कुरंग के तीर से हुई थी। वितान पर पूर्व की ओर वचनाम की आकृति बैठी है। नीचे 'वज्रनाभ' लिखा है। बचनाम के समीप नमस्कार मुद्रा में दो आकृतियां उत्कीर्ण हैं । आगे मुनि वज्रनाभ खड़े हैं, जिनके समीप शरसंधान की मुद्रा 新 कुरंगक की मूर्ति है । आगे वज्रनाभ का मृत शरीर दिखाया गया है । सातवें भाव में मरुभूति ललितांग देव हुए और कमठ रौरव नरक में उत्पन्न हुआ । आठवें भव में मरुभूति निश्चित समय पर दीक्षा ग्रहण कर सुवर्णबाहु ने कठिन तपस्या की। एक बार सुवर्णबाहु क्षीर पर्वत के समीप के क्षीर वन में कायोत्सर्ग पर आक्रमण कर उन्हें मार डाला। नवें नव में योनियों में उत्पन्न हुआ। दसवें भाव में मरुभूति उत्तर की ओर श्मश्रुयुक्त दो आकृतियां बैठी हैं । पुराणपुर के राजा कुलिशबाहू के पुत्र (सुवर्णबाह हुए कमठ का जीव इस भव में क्षीर पर्वत पर सिंह हुआ। में तपस्या कर रहे थे। सिंह (कमठ का जीव) ने उसी समय सुवर्णबाहु मरुभूति महाप्रभ स्वर्ग में देवता हुए और कमठ नरक एवं विभिन्न पशु का जीव पार्श्व जिन और कमठ का जीव कठ साधु हुआ । वितान पर समीप ही सुवर्णबाहु मुनि की कायोत्सर्ग मूर्ति उत्कीर्ण है । मुनि के समीप आक्रमण की आकृतियों के नीचे 'कनकप्रभ मुनि' एवं 'सिंह' अभिलिखित हैं । नवें भव में मरुभूति का के जीव को प्राप्त होने वाली नरक की यातनाओं के चित्रण हैं । दो आकृतियां कमठ के कर रही हैं । १३३ पूर्वभवों के चित्रण के बाद वार्तालाप की मुद्रा में पार्श्व के माता-पिता की मूर्तियां उत्कीर्ण है। नीचे 'अश्वसेन राजा' और 'वामादेवी' लिखा है । आगे सेविकाओं से वेष्टित वामादेवी एक शय्या पर लेटी हैं । समीप ही १४ मांगलिक स्वप्नों और शिशु के साथ लेटी वामादेवी के अंकन हैं। आगे पार्श्व के जन्माभिषेक का दृश्य है, जिसमें इन्द्र की गोद में एक शिशु (पा) बैठा है । मुद्रा में एक सिंह बना है । देवता के रूप में और कमठ सिर पर परशु से प्रहार पश्चिम की ओर एक गज पर तीन आकृतियां बैठी हैं नीचे 'पार्श्वनाथ उत्कीर्ण है आगे कठ साधु के पंचाग्नि तप का चित्रण है । कठ साधु के दोनों ओर दो वट उत्कीर्ण हैं । कठ के समक्ष गज पर आरूढ़ पार्श्व की एक मूर्ति है। जंन परम्परा में उल्लेख है कि जब कठ साधु पंचाग्नि तप कर रहा था, उसी समय कुमार पार्श्व उस स्थल से गुजरे पाप को यह ज्ञात हो गया कि अग्निकुण्ड में डाले गये लकड़ी के ढेर में एक जीवित सर्प है। पाश्र्व के आदेश पर एक सेवक ने लकड़ी के ढेर से सर्प को निकाला । पर काफी जल जाने के कारण सर्प की मृत्यु हो गई । यही सर्प अगले जन्म में नागराज धरण हुआ जिसने मेघमाली के उपसर्गों के समय पार्श्व की रक्षा की थी । Jain Education International दृश्य में एक आकृति को परशु से लकड़ी चीरते हुए दिखाया गया है । समीप ही लकड़ी से निकला सर्प प्रदर्शित है। स्मरणीय है कि यही कठ साधु अगले जन्म में मेघमाली असुर हुआ आगे पावं कायोत्सर्ग में खड़े हैं और दाहिने २ वही, पृ० ३६५ - ६९ ३ वही, पृ० ३६९-७७ ४ वही, पृ० ३९१-९२ १ वही, पृ० ३६४-६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy