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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
बारह वर्षों की कठिन तपस्या के बाद अजित को अयोध्या में सप्तपणं ( न्यग्रोध) वृक्ष के नीचे केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ । अजित को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ । '
प्रारम्भिक मूर्तियां
अजित का लांछन गज है और यक्ष-यक्षी महायक्ष एवं अजितबला ( या अजिता या विजया) हैं । दिगंबर परम्परा में अजित की यक्षी रोहिणी है । केवल दिगंबर स्थलों की अजित मूर्तियों में ही यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं । पर उनके निरूपण में लेशमात्र भी परम्परा का निर्वाह नहीं किया गया है। साथ ही उनके स्वतन्त्र स्वरूप भी कभी स्थिर नहीं हो
सके । ल० छठीं-सातवीं शती ई० में अजित के लांछन और आठवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी का निरूपण प्रारम्भ हुआ ।
अजित को प्रारम्भिकतम मूर्ति ल० छठीं -सातवीं शती ई० संग्रहालय, लखनऊ (४९ - १९९९) में है । अजित कायोत्सर्ग - मुद्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । भामण्डल के अतिरिक्त कोई अन्य प्रातिहार्यं नहीं पूर्वमध्ययुगीन मूर्तियां
की है। वाराणसी से मिली यह मूर्ति सम्प्रति राज्य निर्वस्त्र खड़े हैं और पीठिका पर गज लांछन की दो उत्कीर्ण है ।
मिली हैं। ल० आठवीं शती ई० की अकोटा की पीठिका छोरों पर द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं,
गुजरात - राजस्थान —- इस क्षेत्र से अजित की तीन मूर्तियां एक मूर्ति में धर्मचक्र के दोनों ओर अजित के गज लांछन उत्कीर्ण हैं । 3 जिनके आयुध स्पष्ट नहीं हैं । पीठिका पर अष्टग्रहों की भी मूर्तियां हैं । १०५३ ई० की दूसरी मूर्ति अहमदाबाद के अजितनाथ मन्दिर में है जिसमें लांछन नहीं उत्कीर्ण है । पर पीठिका लेख में अजित का नाम आया है । तीसरी मूर्ति कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर में है । १११९ ई० की इस मूर्ति में कायोत्सर्गं में अवस्थित मूलनायक की पीठिका पर गज लांछन बना है । यक्ष-यक्षी नहीं उत्कीर्ण हैं, पर तोरण स्तम्भों पर अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता, महाकाली, वज्रशृंखला, वज्रांकुशी, रोहिणी महाविद्याओं एवं शान्तिदेवी की मूर्तियां हैं ।
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उत्तरप्रदेश - मध्यप्रदेश - इस क्षेत्र में केवल देवगढ़ एवं खजुराहो से ही अजित की मूर्तियां मिली हैं । * देवगढ़ में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की पांच मूर्तियां हैं ( चित्र १५) | चार मूर्तियों में अजित कायोत्सर्ग में खड़े हैं । गज लांछन सभी में उत्कीर्ण है । मन्दिर २१ की दसवीं शती ई० की एक मूर्ति के अतिरिक्त अन्य सभी उदाहरणों में यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। तीन उदाहरणों में द्विभुज यक्ष-यक्षी सामान्य लक्षणों वाले हैं । इनकी भुजाओं में अभयमुद्रा एवं फल ( या जलपात्र) प्रदर्शित हैं । मन्दिर २९ की बारहवीं शती ई० की एक मूर्ति में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं । इस मूर्ति में चामरघरों के समीप हार और घट लिए हुए दो आकृतियां खड़ी हैं । मन्दिर १२ की चहारदीवारी की दो मूर्तियों (१०वीं - ११ शती ई०) के परिकर में क्रमशः चार और पांच छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं |
खजुराहो में ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की चार मूर्तियां हैं। सभी मूर्तियां स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं । तीन उदाहरणों में अजित ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं । यक्ष-यक्षी केवल एक ही मूर्ति (के ४३ ) में निरूपित हैं । एक
१ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ६४-६७
२ शर्मा, आर० सी०, 'जैन स्कल्पचर्स ऑव दि गुप्त एज इन दि स्टेट म्यूजियम, लखनऊ', म०जै०वि० गो० जु०वा०, बम्बई, १९६८, पृ० १५५ ३ शाह, यू०पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, पृ० ४७, चित्र ४१ बी०
४ मेहता, एन०सी०, 'ए मेडिवल जैन इमेज ऑव अजितनाथ - १०५३ ए०डी०', इण्डि० एण्टि०, खं०५६, पृ०७२-७४ ५ अजीत, सम्भव, अभिनन्दन एवं पद्मप्रभ की कुछ कायोत्सर्गं मूर्तियां मध्य प्रदेश के शिवपुरी संग्रहालय में हैं । द्रष्टव्य, जै०क० स्था०, खं० ३, पृ० ६०४
६ सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी से हमारा तात्पर्यं सदैव ऐसे द्विभुज यक्ष-यक्षी से है जिनके करों में अभयमुद्रा (या पद्म) एवं फल ( या जलपात्र) प्रदर्शित हैं ।
७ तिवारी, एम० एन०पी०, 'दि जिन इमेजेज़ ऑव खजुराहो विद स्पेशल रेफरेन्स टू अजितनाथ', जैन जर्नल,, खं० १०, अं० १, पृ० २२-२५
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