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पावा मार्ग अनुसंधान : १९१ हुए डा० अरविन्द कुमार सिंह ने निष्कर्ष निकाला है कि राजनैतिक दष्टि से ८वीं शताब्दी में कल्चुरियों ने अपनी अलग पहचान कायम कर ली थी। परन्तु उनके पराभव के उपरान्त यह सत्ता ११वीं शताब्दी के अन्त में पुनः कन्नौज के अधीन हो गयी। इससे यही प्रतीत होता है कि उक्त अभिलेख-१०-११वीं शताब्दी के मध्य का होना चाहिए। माथा कँवर ( कुशीनगर ) अभिलेख के खण्डित अवस्था में होने के कारण उसके निर्माण के सम्बन्ध में निश्चित सूचना प्राप्त नहीं हो पाती है। फिर भी बुद्ध की एक विशालकाय प्रतिमा के पास इस प्रस्तर अभिलेख के उत्कीर्ण होने के आधार पर यह अनुमानित है कि कल्चुरि शासक द्वारा वहाँ पर कुछ निर्माण कार्य ( सम्भवतः पूजास्थल और संघाराम ) करवाया गया था। ___ कुशीनगर के उपरोक्त प्रस्तर-स्तम्भ एवं प्रस्तराभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं तथा इतिहास की कड़ियों को संयोजित करने में सहायक हैं। कुशीनगर से प्राप्त पुरातात्त्विक कला कृतियाँ एवं सामग्रियाँ इसे महापरिनिर्वाण स्थली के रूप में मान्यता प्रदान करती हैं। किन्तु इसके विषय में डी० आर० पाटिल२ का कथन है कि वास्तव में यह आश्चर्यजनक है कि यहाँ से प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियों में कहीं भी कुशीनगर का सीधा उल्लेख नहीं है।
निःसंदेह बुद्ध के महानिर्वाण के पश्चात् कुशोनगर की महत्ता में वृद्धि हुई थो। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि कुशीनगर यात्रा के समय बुद्ध की इस परिनिर्वाण स्थली को देखकर सम्राट अशोक भावावेश के कारण मूछित हो गये थे । कुशीनारा के सम्बन्ध में यह कहा गया है-"इध तथागतो अनुपदिसेसापं, निव्वाण धातु या परिनिब्बतोति ।"3 कुशीनारा को एक दर्शनीय और वैराग्यप्रद ( संबेजनीय ) स्थान बताया गया है। ___ अशोक स्तम्भों के विवेचन से वैशाली-श्रावस्ती तथा कपिलवस्तुलुम्बिनी बुद्धकालीन महत्त्वपूर्ण मार्ग के रूप में आते हैं। इस प्रसिद्ध मार्ग पर कोल्हुआ, केसरिया, लौरिया अरेराज, लौरिया नन्दनगढ़, पावा ( पड़रौना ) कुशीनगर, धानी-सहनकोट ( पिप्पलिवन ) गोरखपुर ( राम१. डा० सिंह, अ० कु०, पूर्वोक्त पृ० ५-१० २. पाटिल-डी० आर०, कुशीनगर, पृ० १५ । ३. दिव्यावदान, पृ० ३९४
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