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परिशिष्ट
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रसवाणिज्जे : १ / १५१ = रसवाणिज्य – मदिरा या अन्य मादक द्रव्यों के व्यापार को रसवाणिज्य कहा जाता है ।
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रायाभिओगेणं : १/५८ - राजाभियोगेन -राजा या स्वामी द्वारा दबाव के कारण अन्य मत व सम्प्रदाय के लोगों के साथ संभाषण करना । श्रावक व्रत में इसकी छूट रहती है ।
लवण समुद्दे : १/७४ = लवणसमुद्र - जैन भूगोल का एक पारिभाषिक शब्द है जिसके अनुसार अढ़ाई द्वीप के मध्य में जम्बू द्वीप है, उसके चारों ओर लवणसमुद्र स्थित है ।
वज्ज-रिसह - नाराय - संघयणे : १/७६ = व्रजऋषभ नाराच संहनन = शरीर के अंगों के संगठन को संहनन कहा गया है । शरीर शास्त्र के इतिहास में यह संहनन छः प्रकार का होता है, जिसमें शारीfre संधियों की बनावट का वर्णन है । इस तरह जो संहनन व्रजऋषभनाराच से युक्त हो वह उत्तम माना गया है । यह संहनन तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के ही होता है । वणकम्मे : १/५१ = वनकर्म - वनों की लकड़ी काटना व बेचना, हरी वनस्पतियों का छेदन करना अर्थात् त्रसजीव विराधना के कार्य करना ।
वय : ८/२३२ = व्रज — गायों का समूह । इसी का पर्यायवाची गोकुल है । एक गोकुल में दस हजार पशु होते हैं ।
वित्तिकंतारेणं : १/५८ = वृत्तिकान्तरेण - आजीविका चलाने में कठिनाई होने पर आश्रितों के भरण-पोषण के लिए अन्य मन व संप्रदाय में जाना वृत्तिकान्तरेण कहा जाता है । श्रावक व्रत पालन में इससे छूट दी गई है ।
विसवाणिज्जे : १/५१ = विषवाणिज्य – जहरीले पदार्थों के व्यापार को, जिसमें कोड़े, चूहे आदि मारने की दवा, जहर, अस्त्र-शस्त्र आदि सम्मिलित है, को विषवाणिज्य कहा है ।
सचित्ताहारे : १/५१ = सचित्त आहार - विना पकाई हुई सब्जी आदि को खाना सचित्त आहार है । सचित्त का शाब्दिक अर्थ प्राणयुक्त ( हरी सब्जी से है ।
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