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उपासकदशांग : एक परिशीलन प्रत्येक घर से बिना किसी भेदभाव के जो भी भिक्षा प्राप्त हो
उसे समभाव पूर्वक ग्रहण करने को गृहसमुदान कहा जाता है । चेइए : १/१० = चैत्य-चैत्य का अर्थ जिनग्रह, जिनमंदिर, उद्यान, बगीचा,
विश्राम स्थान, उपाश्रय आदि से लिया जाता है।
छटुं-छटेणं : १/७६ = षष्ठषष्ठेन-यह एक प्रकार की तपस्या है, जिसमें छः
भोजनों का त्याग किया जाता है। पहले दिन सायंकाल का भोजन नहीं करके दूसरे व तीसरे दिन पूर्ण उपवास रखा जाता है तथा चौथे दिन केवल प्रातःकाल का ही भोजन किया जाता है। इस प्रकार इसमें दो दिन एक-एक समय का ही भोजन किया जाता है और दो दिन उपवास रखा जाता है। ऐसा तप
गौतम स्वामो ने किया था। जिण : ७/१८७ = जिन-जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है ऐसे सर्वज्ञान
के धारक व्यक्ति को प्राचीन समय में 'जिन' कहा जाता था। यह शब्द अत्यन्त सम्मान का सचक था। 'जैन' शब्द इसी
'जिन' शब्द से बना है। तच्च-कम्म-संपया-संपउत्त : ७/१८७% तत्थकर्म-सम्पदा-सम्प्रयक्त-महावीर
के विशेषण के रूप में ये शब्द प्रयुक्त हैं। तथ्यात्मक कर्मसम्पदा से युक्त जो तपस्या की जाती है उसके लिए इस विशेषण का प्रयोग होता है अर्थात् तपस्या जिस उद्देश्य से की जाती थो वह वास्तव में उसी उद्देश्य पर पहुँचाने वाली होनी चाहिए।
महावीर की तपस्या इसी प्रकार की थी। धम्मविज्जिया : ७/२२७ = धर्मवैद्या-धार्मिक स्त्री का एक विशेषण ।
जैसे शरीर में रोग उत्पन्न होने पर वैद्य उसका निदान करता है। उसी तरह धर्म के प्रति यदि उदासीनता व पीड़ा आती है
तो उसे दूर करने में जो चतुर हो वह धर्मवैद्या कहलाती है। धम्म-सहाइया : ७/२२७ = धर्मसहायिका-स्त्री का विशेषण । धर्म-कार्यों
में पति की सहायता करने वाली एवं पति को प्रोत्साहित कर धर्म कार्य में प्रवृत्त करने वाली स्त्री धर्म-सहायिका कहलाती है।
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