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द्वितीय अध्याय
तीर्थंकर की अवधारणा १. जैनधर्म में तीर्थंकर का स्थान
जैनधर्म में तीर्थंकर को धर्मतीर्थ का संस्थापक कहा गया है। "नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में तीर्थंकर को धर्म की आदि करने वाला, धर्म तोथं की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्म मार्ग का सारथी और धर्म चक्रवर्ती कहा गया है।' जैनाचार्यों ने एकमत से यह माना है कि समय-समय पर धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु तोर्थंकरों का जन्म होता रहता है । जैन धर्म का तीर्थंकर गीता के अवतार के समान धर्म का संस्थापक तो है किन्तु दुष्टों का दमन एवं सज्जनों की रक्षा करने वाला नहीं है । जैन धर्म में तीर्थकर लोककल्याण के लिए मात्र धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हैं, किन्तु अपनी वीतरागता, कर्म सिद्धान्त को सर्वोपरिता एवं अहिंसक साधना को प्रमुखता के कारण हिन्दू धर्म के अवतार को भांति वे अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने हेतु दुष्टों का दमन नहीं करते हैं। __ जैनधर्म में तीर्थङ्कर का कार्य है-स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोकमंगल के लिए उस सत्यमार्ग या सम्यक् मार्ग का प्रवर्तन करना है । वे धर्म-मार्ग के उपदेष्टा और धर्म-मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं। उनके जीवन का लक्ष्य होता है स्वयं को संसार चक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता के लिए प्रेरित करना और उनकी साधना में सहयोग प्रदान करना । तीर्थंकर को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है ।' वे पुरुषोत्तम हैं । उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरोक कमल के समान वरेण्य और गन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है। वे लोक में उत्तम, लोक के नाथ,
१. नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं, तित्थगराणं, सयंसंबुद्धाणं"""""
धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर चाउरंतचक्कवट्टीण जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं ।
-कल्पसूत्र १६ ( प्राकृत भारती जयपुर)
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