SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन एकमात्र शुद्ध और शाश्वत धर्म है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भूत, वर्तमान और भविष्य काल के अरहन्तों को अवधारणा जैनों में अति प्राचीन काल से उपस्थित रही है। यह भी सत्य है कि अरहन्त की अवधारणा से ही तीर्थंकर की अवधारणा का विकास हुआ है। यद्यपि पटना जिले के लोहानीपुर से तीर्थंकर की मौर्यकालीन प्रतिमा उपलब्ध हुई है, किन्तु वह तीर्थंकर की अवधारणा के विकसित स्वरूप का प्रमाण नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि मथुरा के अभिलेखों ( ई० पू० प्रथम शती से ईसा की दूसरी शती तक ) में भी तीर्थंकर के स्थान पर अर्हत् शब्द का ही प्रयोग देखा जाता है। प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में सबसे पहले उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्याय में महावीर और पार्श्व के विशेषण के रूप में 'धर्म तीर्थंकर जिन' शब्द प्रयुक्त हुआ है। डा० सागरमल जैन की मान्यता है कि जैन परम्परा में प्राचीन शब्द अर्हत् ही था, तीर्थकर शब्द का प्रयोग परवर्ती काल का है। उत्तराध्ययन के पश्चात्कालीन आगमों-आचारांग द्वितीयश्रुतस्कंध, भगवती, स्थानांग, समवायांग एवं कल्पसूत्र में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग हमें मिलता है। जैनों में अर्हत्, जिन, संबुद्ध और धर्मतीर्थंकर शब्द पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं। ज्ञातव्य है बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में 'निगण्ठनाटपुत्त' ( निनन्थज्ञातपुत्र) अर्थात् महावीर, मंखलिगोशाल, संजयवेलठ्ठिपुत्र आदि को तीर्थकर कहा गया है । भगवती में गोशालक अपने को तीर्थंकर कहता है। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में अर्हत्, बुद्ध, जिन, तीर्थंकर आदि श्रमण परम्परा के सर्वसामान्य शब्द थे । किन्तु आज तोथंकर शब्द जैन परम्परा का और बुद्ध बौद्ध परम्परा का विशिष्ट शब्द बन गया है। जैनों में तीर्थंकरों की एक निश्चित संख्या, उनका क्रम, उनके जीवनवृत्त आदि का एक सुव्यवस्थित रूप में प्रतिपादन ईसापूर्व की पहली शताब्दी से लेकर ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी के बीच ही हुआ है। क्योंकि इस काल के रचित ग्रन्थ कल्पसूत्र एवं समवायांग में सबसे पहले हमें तीर्थंकरों से सम्बन्धित विवरण मिलते हैं। जैनों की तीर्थंकर की यह अवधारणा किस प्रकार विकसित हुई, तीर्थंकर के जीवन वृत्तों को किस प्रकार अलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण बनाया गया। इस सबकी चर्चा हमने अग्रिम अध्याय में की है। यहां तो हमारा प्रयोजन मात्र इतना बता देना है कि तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म का केन्द्रीय तत्त्व है। हम यह १. उत्तराध्ययन २३।१; २३।५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy