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________________ १० : तोर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन में परमात्मा बनने की सामथ्यं है । जैनधर्म में आत्मा की निम्न स्थितियाँ मानी गई हैं- ' १ - बहिरात्मा २- अन्तरात्मा ३- परमात्मा संसार के विषय वासनाओं की ओर उन्मुख हुआ व्यक्ति बहिरात्मा है । किन्तु भोगवादी जीवन दृष्टि से विरक्त होकर जो साधक आत्म संयम और आत्मानुभूति की दिशा में अग्रसर होता है, वह अन्तरात्मा है । जब यह अन्तरात्मा अपनी साधना के उच्चतम आदर्श वीतराग दशा को प्राप्त कर लेता है, तो वह परमात्मा बन जाता है । इस परमात्म- दशा को प्राप्त कर लेना ही जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का सारतत्व है। जैनधर्म आत्मा को परमात्मा के रूप में विकसित करने को एक कला है, परमात्मदशा की प्राप्ति ही जैन साधना का एक मात्र लक्ष्य है। जैनधर्म में इस परमात्मदशा या आत्मा की पूर्णता की स्थिति को मुख्यतया दो भागों में बांटा गया है, जो साधक आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर अपने शरीर का त्याग कर चुके हैं वे सिद्ध कहलाते हैं, यद्यपि सिद्धावस्था की प्राप्ति ही जैनधर्म का लक्ष्य है, फिर भी इसके पूर्व व्यक्ति को अर्हतावस्था को प्राप्त करना होता है । जैनों की यह अर्हतावस्था जीवन - मुक्ति की अवस्था है । जैनधर्म में इस अर्हतावस्था को भो तीन रूपों में विभक्त किया गया है - तीर्थंकर, प्रत्येकबुद्ध और सामान्य केवली । हम इन सबकी चर्चा अगले अध्याय में विस्तार के साथ करेंगे । यहाँ केवल इतना बता देना ही पर्याप्त होगा कि सामान्य- केवली और प्रत्येकबुद्ध की अपेक्षा जैनधर्म में तीर्थंकर न केवल अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करता है अपितु, वह धर्ममार्ग के उपदेष्टा और धर्मसंघ के नियामक के रूप में जन-जन को उस आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है । इसके साथसाथ जैनधर्म में तीर्थंकर में विशिष्ट शक्तियाँ भी मानी गई हैं जो कि प्रत्येकबुद्ध और सामान्यकेवली में नहीं होती है, इस प्रकार तीर्थंकर जैनधर्मं और जेनसाधना का प्राण है । १. जीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि यदुविहा, अरहंता तह य सिद्धाय ।। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - १९२ २. अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पी । कम्म कलंक - विभुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥ - मोक्ख पाहुड-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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