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अवतार की अवधारणा : २४५ का तत्व प्रधान होता है । उसमें ज्ञान और कर्म दोनों ही भक्ति के आधीन होते हैं । अतः यह मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए कि अवतारवाद का दर्शन मुख्यतः भक्तिमार्ग का दर्शन है । उसमें भक्ति का स्वर ही प्रमुख है; वहाँ ज्ञान की प्राप्ति भी ईश्वरीय करुणा पर निर्भर है । अवतारवाद की अवधारणा में व्यक्ति का कार्य तो केवल इतना ही है कि वह ईश्वरीय लीला में उसकी इच्छा के अनुरूप उस लीला का पात्र बने और ईश्वरीय इच्छा के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वाह करे । व्यक्ति के स्वतन्त्र इच्छा एवं स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रणाली का उसमें कोई स्थान नहीं ।
यद्यपि इस कमी के बावजूद अवतारवाद के दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह दुःख, पीड़ा और अत्याचार की दशा में भी साहस और संबल प्रदान करता है एवं उसे निराश होने से बचाता है । जो साधक अवतार के इस सिद्धान्त में निश्चल धारणा रखता है, वह निराश नहीं होता है । वह यह मानकर चलता है कि ईश्वरी सत्ता उसके साथ है और वह निश्चय ही उसका उद्धार करेगी । अतः हमें इतना तो अवश्य मानना होगा कि अवतारवाद एक निराशावादी दर्शन न होकर एक आशावादी दर्शन है |
२०. अवतार का प्रयोजन
प्रारम्भ से ही अवतारवाद प्रयोजन से निहित रहा है । भगवान् ने अपनी इच्छा से शरीर धारण कर विभिन्न लीलाएँ की हैं और उनके विभिन्न शरीर धारण का समस्त कार्य-काल किसी न किसी प्रयोजन से सम्बद्ध रहा है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रायः उनके सभी प्रयोजनों समाविष्ट करने का प्रयास किया है ।
सर्वप्रथम वैदिक विष्णु और इन्द्र आदि देवताओं के प्राचीन कार्य की व्याख्या की गई है, अवतार की अवधारणा में इनको विष्णु के अवतारों एवं उनके सहायकों पर आरोपित किया गया । विशेषकर भक्त, भूमि, भूसुर ( ब्राह्मण), सुरभि (गाय) और सुर' आदि शब्दों से वैदिककाल में विष्णु के सम्बन्ध में कहे गये कुछ मन्त्रों से साम्य प्रतीत होता है ।
१. भगत भूमि भूसुर, सुरहित लागि कृपाल ।
करत चरित धरि मनुज-तनु, सुनत मिटहि जंजाल ॥
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— तुलसोदास, ग्रन्थावली, पृ० ९५, दो० १२३
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