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________________ अवतार को अवधारणा : २४३ लोचनायें की हैं । अवतारवाद की अवधारणा उसी दर्शन में अधिक सुसंगत बन पड़ती है जहां परमतत्त्व को चैतन्य भेद युक्त ( चाहे वह स्वगत भेद ही क्यों न हो) तथा करुणाशील, सगुण और साकार माना जाता है। पुनः अवतारवाद की अवधारणा ( Teleological Creation ) के सिद्धान्त प्रयोजनशील सृष्टि में सुसंगत हो सकती है। भौतिकवाद में अथवा उन दर्शनों में जहाँ सृष्टि को निष्प्रयोजन एवं स्वाभाविक (Natural) माना गया है, अवतारवाद को अवधारणा समीचीन सिद्ध नहीं होती है क्योंकि परमसत्ता अथवा ईश्वर का अवतरण किसी प्रयोजन विशेष को लेकर हो होता है। सृष्टि की रचना, पालन और संहार तथा समय-समय पर अवतार लेकर उसको दुष्टों एवं दर्जनों के अत्याचार से मुक्त करना तथा धर्म की संस्थापना करना यह सभी उस परमतत्त्व की या ईश्वर के प्रयोजनशीलता पर ही निर्भर करते हैं। अवतारवाद का दर्शन परमतत्त्व ईश्वर में और उसकी सृष्टि में एक किसी विशिष्ट प्रयोजन को देखता है और यह मानता है कि सृष्टि में स्रष्टा का कोई प्रयोजन निहित है । स्रष्टा और उसकी सृष्टि उद्देश्यहीन अन्ध प्रक्रिया नहीं है अपितु स्रष्टा और उसकी सृष्टि दोनों ही सप्रयोजन हैं यद्यपि दार्शनिक दृष्टि से इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि सृष्टि की प्रक्रिया में स्रष्टा की इच्छा या संकल्प है तो वह पूर्ण नहीं कहा जा सकता। किन्तु यहाँ हम इस आक्षेप के पक्ष और विपक्ष के तर्कों की समीक्षा नहीं करते हुए मात्र इतना ही कहना चाहेंगे कि जब भी हम अवतारवाद की अवधारणा को स्वीकार करके चलेंगे तो हमें निश्चित ही सृष्टि प्रक्रिया और उसके पालन में किसी प्रयोजनशीलता को स्वीकार करना होगा, चाहे उसे हम ईश्वर की लीला ही क्यों न मानें। संक्षेप में, अवतारवाद का दर्शन परमसत्ता को चैतन्य परिणामो, करुणाशील, सगुण और साकार मानकर चलता है, साथ ही यह भी मानता है कि विश्व की सृष्टि में स्रष्टा का प्रयोजन निहित है। ___ दूसरे अवतारवाद के दर्शन में किसी सीमा तक नियतिवाद के तत्त्व समाविष्ट होते हैं क्योंकि अवतारवादी दर्शन ईश्वर को विश्व का नियामक और संचालक मानता है । यदि ईश्वर विश्व का नियामक है तो हमें विश्व घटनाक्रम में किसी सीमा तक नियति का तत्त्व मानना होगा। गीता' में श्रीकृष्ण स्वयं यह कहते हैं कि मैं इस विश्व को ठीक उसी प्रकार चला रहा १. गीता, अध्याय १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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