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________________ का सृजन किया जिनके द्वारा भिक्षुणियों का पुरुषों और भिक्षुओं से सम्पर्क सीमित किया जा सके, ताकि चारित्रिक स्खलन की सम्भावनाएं अल्पतम हो । फलस्वरूप न केवल भिक्षुणियों का भिक्षुओं के साथ ठहरना और विहार करना निषिद्ध माना गया, अपितु ऐसे स्थलों पर भी निवास वर्जित माना गया, जहाँ समीप में ही भिक्षु अथवा गृहस्थ निवास कर रहे हों । भिक्षुओं से बातचीत करना और उनके द्वारा लाकर दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र एवं भिक्षादि को ग्रहण करना भी उनके लिए निषिद्ध ठहराया गया । आपस में एक दूसरे का स्पर्श तो वजित था ही, उन्हें आपस में अकेले में बातचीत करने का भी निषेध किया गया था । यदि भिक्षुओं से वार्तालाप आवश्यक भी हो, तो भी अग्र-भिक्षुणी को आगे करके संक्षिप्त वार्तालाप की अनुमति प्रदान की गयी थी । वस्तुतः ये सभी नियम इसलिए बनाये गये थे, कि कामवासना जागृत होने एवं चारित्रिक स्खलन के अवसर उपलब्ध न हों अथवा भिक्ष ओं एवं गृहस्थों के आकर्षण एवं वासना की शिकार बनकर भिक्षु णी की शील की सुरक्षा खतरे में न पड़े। किन्तु दूसरी ओर उनकी शील सुरक्षा के लिए आपवा दिक स्थितियों में उनका भिक्ष ओं के सान्निध्य में रहना एवं यात्रा करना विहित भी मान लिया गया था । यहाँ तक कहा गया कि आचार्य, युवा भिक्ष और वृद्धा भिक्षु णियाँ तरूण भिक्षु णियों को अपने संरक्षण में लेकर यात्रा करें। ऐसी यात्राओं में पूरी व्यह रचना करके यात्रा की जाती थी-सबसे आगे आचार्य एवं वृद्ध भिक्षुगण, उनके पश्चात् युवा भिक्षु, फिर वृद्ध भिक्षुणियाँ, उनके पश्चात् युवा भिक्षुणियाँ पुनः उनके पश्चात् वृद्ध भिक्षुणियां और अन्त में युवा भिक्षु होते थे । निशीथचूर्णि आदि में ऐसे भी उल्लेख हैं कि भिक्षु णियों की शील सुरक्षा के लिए आवश्यक होने पर भिक्षु उन मनुष्यों की भी हिंसा कर सकता था जो उसके शील को भंग करने का प्रयास करते थे । यहाँ तक कि ऐसे अपराध प्रायश्चित्त योग्य भी नहीं माने गये थे। भिक्ष गियों को कुछ अन्य परिस्थितियों में भी इसी दृष्टि से भिक्ष ओं के सान्निध्य में निवास करने की भी अनुमति दे दी गयी थी, जैसे-भिक्ष -भिक्षणी यात्रा करते हुए किसी निर्जन गहन वन में पहुँच गये हों अथवा भिक्ष गियों को नगर में अथवा देवालय में ठहरने के लिए अन्यत्र कोई स्थान उपलब्ध न हो रहा हो अथवा उन पर बलात्कार एवं उनके वस्त्र-पात्रादि के अपहरण की सम्भावना प्रतीत होती हो । इसी प्रकार विक्षिप्त चित्त अथवा अतिरोगी भिक्षु की परिचर्या के लिए यदि कोई भिक्षु उपलब्ध न हो तो भिक्षु णी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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