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________________ ( ३२ ) वाओं को सती बनने से रोककर उन्हें संघ में दीक्षित होने की प्रेरणा देते थे। जैन परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा । आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका आधार शील का पालन ही है। जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने प्राण त्याग दिये । यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य प्रधान बना दिया गया है। वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है। गणिकाओं की स्थिति गणिकायें ओर वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक रही हैं। उन्हें अपरिगृहीता-स्त्री माना जाये या परिगृहीता इसे लेकर जैन आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल से उपासक के लिये हम अपरिगृहीता-स्त्री से सम्भोग करने का निषेध देखते हैं । भ० महावीर के पूर्व पापित्य परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये यदि कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने में कोई पाप नहीं है । २ ज्ञातव्य है कि पाश्र्व को परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति माना जाता था, चंकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था इसलिये शिथिलाचारी १. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनश नेन मम्रतुः । -प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२९. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ॥ जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज्ज मुहुत्तंगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ।।-सूत्रकृतांग, १/३/४/९-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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