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________________ ( २३ ) इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे । पूर्वयुग में ब्राह्मी, सुन्दरी, मल्लि, आगमिक युग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया । आगमिक व्याख्याओं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं । डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा-स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, वर या कन्या को योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह ।' किन्तु हमें आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल सका जहाँ जैनाचार्यों ने गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित है या अनुचित है। यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य को दृष्टि से यह विधि महत्त्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतंत्रता खण्डित होती थी। जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ । इस विधि में नारी की स्वतंत्रता पूर्णतया खण्डित हो जाती थो; क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का अर्थ मात्र यह मानना नहीं है कि स्त्री को चयन की स्वतंत्रता ही नहीं है, अपितु यह तो उसे लूट को सम्पत्ति मानने जैसा है। जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं केवल कुछ प्रसंगों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग एवं पूर्व काल के हैं। माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि में स्त्रीपुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यद्यपि यह सत्य है. १. जैनागम साहित्य में भारतीय समाज,-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, पृ० २५३-२६६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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