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( २० ) प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्षेत्रों में शिक्षक वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। फिर भी बौद्ध भिक्षुणी संघ की अपेक्षा जैन भिक्षुणी संघ में स्वायत्तता अधिक थी। किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रायश्चित्त, शिक्षा और सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्ष संघ से स्वतन्त्र विचरण करते हुए धर्मोपदेश देतो थीं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे।
यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है
जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा ।
विहवा पुत्तवसा नारी नत्थि नारी सयंवसा ॥ ३/२३३ अर्थात जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर पति के अधीन और विधवा होने पर पूत्र के अधीन होती है अतः वह कभी स्वाधीन नहीं है। इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री को स्वाधीनता सीमित की गयी है। पुत्र-पुत्री को समानता का प्रश्न
चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री को समकक्षता स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप पुत्र का स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना पूर्वजों को सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।' फलतः आगे चलकर हिन्दू परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री को समकक्षता को अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएं पुत्र-पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं। चाहे अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था को दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता रहो हो किन्तु जहाँ तक १. अपुत्रस्य गतिर्नास्ति । २. जइ णं अहं दारगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणवुड्ढेमित्ति ।
-ज्ञाताधर्मकथा, १, २, १६
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