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३०० : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प्रतिपादन शैली बड़ी प्रभावशाली, उनका ज्ञान विस्तृत और स्वभाव सौम्य, सरल था । इसलिए उनका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता था। ___ सं० १९३८ में जब वे जम्मू में चातुर्मास कर रही थीं तो जम्मू नरेश के पुजारी की शंकाओं का भी समाधान उन्होंने उचित ढंग से किया। महाराज नाभा ने सं० १९४४ में कुछ प्रश्न पूछे थे। पार्वती म० स० ने उनका यथोचित् उत्तर दिया जिससे महाराज उनके प्रति आस्थावान हो गये।
प्रतिनी पद-सं० १९५१ में चैत्र वदि ११ को आचार्य मोतीराम जी म० ने आगम के महान् मर्मज्ञ पूज्य श्री सोहनलाल जी म० को युवाचार्य पद दिया । उसी के साथ उन्होंने महासती पार्वती म० को प्रवर्तिनी का पद प्रदान कर इनकी योग्यता का सम्मान किया। तब से लेकर ४७ वर्षों तक निरन्तर महासती पार्वती जी इस गरिमामय पद पर सुशोभित रहीं और दूर-दूर तक जैन शासन की प्रभावना थीं।
शिष्यायें-महासती पावंती म० की चार प्रमुख शिष्यायें हुई(१) श्री जोवी जी म०, (२) श्री कर्मदेवी जी म०, (३) श्री भगवान देवी जी म० और (४) श्री राजमणी जी म० सं०। १९५७ में आपने जयपुर में चातुर्मास किया, उसके पश्चात् अलवर पधारी। यहीं पर महासती जी के चरणों में सेवा का संकल्प लेकर पन्नादेवी आई और रोहतक में उनकी भगवती दीक्षा बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई । महासती राजीमती और महासती पन्ना कुंवर म० स० का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है। __ अन्तिम दिनों में वार्धक्य और शारीरिक दुर्बलता के कारण महासती पार्वती जी जालंधर में स्थिरवास कर रही थीं। वहीं सं० १९९६, माघ वदि ९ शुक्रवार को उन्होंने स्वर्गारोहण किया । २. महासती श्री राजीमती म० स०
बचपन-आप का जन्म स्यालकोट के प्रसिद्ध जैन परिवार लाला खुशहाल साह के घर हुआ था। इनके माता-पिता संस्कार सम्पन्न थे। उन्होंने बचपन से ही इन्हें उत्तम गुणों की शिक्षा दी। वे सरल-निर्मल मन की बालिका थीं हो. इस शिक्षा से मानों सोने में सुगन्ध आ गई। यद्यपि विधिवत् पाठशाला की शिक्षा नहीं मिल पाई फिर भी साधु सतियों की संगति से इन्हें जैनधर्म एवं तत्त्वज्ञान की अच्छी जानकारी हो
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