________________
खरतरगच्छीय सुखसागर महाराज के समुदाय की साध्वी-परम्परा का परिचय
सन्तोष विनयसागर जैन
जिस प्रकार शिथिलाचार परिहारी क्रियोद्धारक संविग्न साधु परम्परा का प्रारम्भ १९वीं शताब्दी में उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से मानकर उनकी परम्परा का इतिवृत्त दिया है/परिचय दिया है । उसी प्रकार साध्वी वर्ग ने भी इन मुनि-वृन्दों के साथ क्रियोद्धार अवश्य किया होगा, किन्तु इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं है । क्रियोद्धारिका के रूप में सर्वप्रथम १९ वीं शताब्दी में उद्योत श्रीजी का ही नाम प्राप्त होता है । वर्त - मान में समुदाय की परम्परा भी उद्योत श्रीजी की ही शिष्या परम्परा है अतः उद्योतश्रीजी से ही परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है :(१) उद्योतश्रीजी
--
इनका निवास स्थान फलोदी था । नाम नानीबाई था । बाल्यावस्था में ही फलोदी के हो रतनचन्दजी गोलेछा के साथ विवाह हुआ था । अशुभकर्मोदय के कारण इनके पति का स्वर्गवास हो गया। पति के अचानक स्वर्गवास से मन संसार से विरक्त हो गया । रूपश्री जी से प्रभावित होकर इन्होंने सम्वत् १९१८ में राजश्री जी के पास दीक्षा ग्रहण की, नाम उद्योती रखा गया । फलोदी में चातुर्मास के समय ही इन्हें सद्गुरु का सहयोग मिला । सद्गुरु थे क्रियोद्धारक सुखसागरजी । सुखसागरजी की उत्कृष्ट क्रिया पात्रता देखकर उद्योत श्रीजी ने भी क्रियोद्धार किया और उनकी आज्ञानुयायिनी बन गईं ।
कालांतर में इन्होंने ४ साध्वियों को दीक्षा देकर अपने साध्वी समुदाय की वृद्धि की। चारों साध्वियाँ थीं – धनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री और पुण्यश्री ।
साध्वियों को शिक्षा-दीक्षा देती हुई अनेक स्थानों पर विचरण करती रहीं । संवत् १९४० के बाद फलोदी में आपका स्वर्गवास हुआ । इनकी शिष्याओं - लक्ष्मीश्रीजी और शिवश्रीजी की शिष्याओं में अत्यधिक मात्रा में वृद्धि होने के कारण उद्योतश्रीजी की परम्परा दो भागों में विभक्त हो गई । एक लक्ष्मीश्रीजी की परम्परा और दूसरी शिवश्रीजी की परम्परा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org