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१-७वीं सदी की जैन साध्वियां व विदुषियाँ : १६१ देवी के साथ हुआ था'। रानी का राजा पर इतना प्रभाव था कि राजमुद्राओं पर भी उनकी मूर्ति अंकित करवाई गई। राजमहिषी की जैन धर्म में श्रद्धा होने से अन्य महिलाओं ने भी इसे अपनाया। रानी की प्रेरणा से हो मन्दिरों में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित की गई। राजा समुद्रगुप्त ने मन्दिरों में पूजार्थं ढेर सा द्रव्य दिया । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन काल ई० सन् ३७५ से ४१४ तक) की राजसभा में जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का बहुत प्रभाव था। इनका सेनापति अमरकर देव जैन था जिसने ई० सन् ४११ में जैन मन्दिर को तीर्थंकरों को पूजा हेतु एक ग्राम और २५ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट की थी। जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर को राज्याश्रय प्राप्त था। उस समय गुप्त राजाओं की राजधानी उज्जयिनी सब धर्मों की केन्द्र थी। श्राविका श्यामाढ्य :
कुमारगुप्त के राज्य में जैन धर्मावलंबियों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। उस समय के जैन आचार्य दंतिलाचार्य की शिष्या श्राविका श्यामाढ्य ने एक जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई। यह गृहस्थ महिला श्रमणोपासिका थी और धर्म में दृढ़ आस्था रखती थी। कर्मों की निर्जरा करने के लिये देवाधिदेव की प्रतिमा का निर्माण अपने खर्च से करवाया तथा प्रतिष्ठा का उत्सव बहुत धूमधाम से किया । इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय की गृहस्थ महिलाएँ स्थापत्य कला तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों में रुचि रखती थीं। साथ ही विभिन्न धार्मिक उत्सवों में उत्साह से सम्मिलित होती थीं। कुमारगुप्त के काल (ई. सन् ४२५) में उदयगिरि में एक और लेख मिला है, जिसमें पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है, जो वर्तमान में भी
१. डॉ० ज्योतिप्रसाद-भारतीय इतिहास : एक दृष्टि-पृ० ११८ २. डॉ० कामटे-रिलिजन ऑफ तीर्थकराज-जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया भाग २,
पृ० २५८ ३. वही। ४. श्रीमती स्टीवेन्सन-हार्ट ऑफ जैनिज्म ५. (क) डॉ० हीरालाल जैन-भारतीय संस्कृति में - जैन धर्म का योगदान
पृ० ३५ (ख) प्रो० कृष्णचन्द्र वाजपेयी-प्राचीन भारतीय संस्कृति-पृ० ५१८ (ग) डॉ० ज्योतिप्रसाद-भारतीय इतिहास : एक दृष्टि-पृ० १९८
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