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१४४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं दर्शन शास्त्र का अध्ययन कर रही थीं तथा अपनी परम्परानुसार अत्यन्त संयमी जीवन व्यतीत कर रही थीं। इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेख प्राप्त होता है___ "ब्राह्मण अपनी पत्नियों को अपने दर्शन के रहस्यों से परिचित नहीं कराते थे। उन्हें भय था कि वे या तो उनके धार्मिक रहस्यों को दूसरों के समक्ष कह देंगी अथवा स्वयं ज्ञानी बन कर पति को छोड़ कर चली जायेंगी।"
उपर्युक्त यात्रा विवरण से विदित होता है कि उस समय भारत में कोई ऐसी परम्परा अवश्य था जिसमें नारियों को पुरुषों के समान धर्मदर्शन आदि का अध्ययन करने की पूरी स्वतंत्रता थी।
मौर्य वंश के पूर्व पाटलीपुत्र (मगध) में नन्द राजाओं ने जैन धर्म को राज्याश्रय दिया था। मौर्य वंश के प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त ने नन्द को पराजित कर पाटलीपुत्र पर अपना राज्य स्थापित किया। उसके राज्य में भी जैन धर्म को पूर्ण राज्याश्रय प्राप्त था।
सुप्रभा:
पराजित राजा नन्द अपनी पुत्री सुप्रभा को रथ में साथ लेकर राजधानी से दूर जा रहा था। रथ में बैठी हुई सुप्रभा की दृष्टि वीर चन्द्रगुप्त के ऊपर पड़ी। पुत्री के आकर्षण एवं विषम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राजा नन्द ने सुप्रभा का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। सुप्रभा भी श्रमणोपासिका थी। पिता के समान वह भी आचार्यों तथा साधुओं को आदर की दृष्टि से देखती थी । ई० पू० ३१७ में पाटलीपुत्र में चन्द्रगुप्त के सम्राट घोषित किए जाने पर उसकी रानी सुप्रभा को अग्रमहिषी का उच्च स्थान दिया गया । यह उसके विशिष्ट गुणों का ही परिणाम था कि शत्रु राजा की पुत्री होते हुए भी उसे अग्रमहिषी होने का गौरव मिला।
उस समय उत्तरी भारत में भिन्न-भिन्न संप्रदायों के संन्यासी तथा परिव्राजक आत्म साधना में लीन रहा करते थे। मौर्य वंश के राजाओं
१. डॉ० मुकर्जी-चन्द्रगुप्त मौर्य और उसका काल-पृ० २५० २. (क) डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन-प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
पृ० ४० . (ख) आ० हस्तीमलजी-जैनधर्म का मौलिक इतिहास-भाग २, पृ० ४३३
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