SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [९] अपनी इस रचना में त्याग तपस्या की प्रतिमूर्ति नारी के परम्परागत जीवन चरित्र को यथावत् एकत्रित कर उनके विशिष्ट गुणों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है । इससे महिलाओं के इतिहास की पूर्ति हो सकेगी, इसी विश्वास के साथ यही विषय चुना था तथा जैसा भी बन पड़ा आपके सामने प्रस्तुत है । इस प्रबन्ध को लिखते समय आज के वैज्ञानिक युग की विचारधारा भी मेरे समक्ष रही । वर्तमान के वैज्ञानिक धरातल में प्रत्येक शिक्षित विचारवान् व्यक्ति प्रमाणभूत सिद्धान्तों को अपनाना चाहता है । वह चमत्कारों एवं तिलस्मी कथाओं से दूर भागता है, क्योंकि उसके सामने तो प्रामाणिक सिद्धान्तों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। हमारे वैदिक, जैन एवं बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों में अलौकिकता एवं पौराणिक वर्णन भरे पड़े हैं । इस शोध ग्रन्थ में अलौकिक घटनाओं के वर्णन को यथा सम्भव छोड़ दिया गया है । मैंने उस समय की सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थिति में महिलाओं के व्यक्तिगत एवं आध्यात्मिक गुणों को वास्तविकता के धरातल पर परखने की कोशिश की है । जैन परम्परा में तीर्थंकर के जीवन से सम्बद्ध पाँच कल्याणकों की मान्यता हैं - १. च्यवन कल्याणक, २. जन्म कल्याणक, ३. दीक्षा कल्याणक, ४. केवलज्ञान कल्याणक और ५. मोक्ष कल्याणक । कल्पसूत्र में इनका विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें च्यवन एवं जन्म कल्याण के समय देवतागण एवं इन्द्र स्वयं आकर तीर्थंकरों की माताओं को प्रणाम करते हैं और चौसठ दिक्कुमारिकाओं को उनकी सेवा में रखते हैं । यह जैन धर्म में माता के विशिष्ट स्थान एवं श्रद्धा का द्योतक है । तीर्थंकरों की जननी का जिस प्रकार आगम ग्रन्थों में सम्मान किया गया है, कदाचित् अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । जैन धर्म में स्त्री को चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में भी स्थान दिया गया है । राजा भरत ने सुन्दरी को स्त्री - रत्न की उपाधि देने का संकल्प किया था, परन्तु उसने आत्मसाधना कर संसार त्याग का प्रण लिया और त्याग को अधिक महत्त्व दिया । इससे स्पष्ट होता है कि जैन धर्म में स्त्री केवल भोग सामग्री नहीं थी, वरन् उसे भी स्वतंत्र रूप से विकसित एवं पल्लवित होने के समुचित अवसर प्राप्त थे। जिनसेन के अनुसार उस समय की महिलाओं के सामने यह आदर्श था - ' तदैव नतु पाण्डित्यं यत्संसारात्समुद्धरेत्' - अर्थात् संसार से उद्धार पा लेना ही पंडिताई एवं चतुराई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy