________________
प्रस्तुत शोध-प्रबंध के लेखक डा० बशिष्ठनारायण सिन्हा हैं जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के 'बृहद् बम्बई वर्धमान स्थानकवासी जैन महासंघ शोध-छात्र' रहे हैं। प्रबन्ध का निर्देशन एवं संपादन संस्थानाध्यक्ष डा. मोहनलाल मेहता ने किया है। इसके प्रकाशन का व्यय दिल्ली के श्री विजय कुमार जैन एण्ड सन्स ने अपने पिता लाला बनारसीदास, जो लाला मिलखोमल के सुपुत्र एवं अमृतसर के एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य थे, की पुण्य-स्मृति में वहन किया है । स्व. लाला बनारसी दास का परिचय इस प्रकार है :
लाला बनारसी दास ने सन् १८८९ में अमृतसर के एक उच्च घराने में जन्म लिया। उन्हें शुरू से ही जैन धर्म में बड़ा लगाव था व यह शौक निरन्तर बढ़ता ही गया। वे सूर्य की तरह चमके जिसकी ज्योति-तले आज भी उनका परिवार चमचमा रहा है। सूर्य यद्यपि अस्त हो गया मगर उसकी अमिट रोशनी चहुँओर है।
वे एक सच्चे समाज सेवो थे जिन्होंने तन-मन-धन से समाज को उन्नत-समुन्नत बनाने का भरसक प्रयत्न किया। सर्वोत्तम सफलता प्राप्त करने के लिए कार्य में रत होकर वे अपने आप को भूल जाते थे। आलस्य को तो वे जीवित मनुष्य की कबर समझते थे।
वे साहसी महापुरुष थे जो कभी भी हिम्मत न हारते थे। उनका कहना था कि संघर्ष हो जिन्दगी है, जब तक सांस है संघर्षों से जूझते जाओ, सफलता स्वयमेव मिलेगी।
विश्वास और इज्जत को उस महानुभाव ने बनाए रखा क्योंकि इन दोनों की समाप्ति के साथ इन्सान की भी मृत्यु हो जाती है। उन्होंने बुरे इन्सान से कभी घृणा नहीं की, बल्कि उसको बुराई से की।
वे एक महान् दानी थे, जो धार्मिक व शैक्षणिक संस्थाओं को अधिकाधिक दान देते थे। वसे तो उनके समस्त गुण उनके सुपुत्र विजय कुमार में हैं परन्तु इतना विशेष है कि वे दान में पिता से भी बढ़कर हैं, यह कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति न होगी।
धर्म-कर्म में उनका अटूट विश्वास था। उनकी वाणी में एक ऐसा जादू था जिससे आकर्षित होकर पराये भी अपने बन जाते थे। उन्होंने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org