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________________ जैन धर्म में अहिंसा का सम्बन्ध सिर्फ मानव मात्र के ही प्राणाघात या कष्ट से नहीं, बल्कि जीव, बीज आदि को भी विनष्ट होने से बचाने से है। अतः मूलबीज, स्कन्धबीज, फलबीज एवं अग्रबीज आदि को नाश से बचाने वाले को ही श्रमण या भिक्षु कहा गया है। कठोर वचन न बोलकर प्रेमपूर्ण सर्वजनप्रिय भाषण देना भी अहिंसा की श्रेणी में लिया गया है। आगे चलकर “सामफल सुत्त' में “भिक्षु होने का प्रत्यक्षफल" शीर्षक के अन्तर्गत फिर से इन्हीं बातों को प्रकाशित किया गया है। वहाँ आरभ्मिक शील के अन्तर्गत अहिंसा, अस्तेय आदि की अलग-अलग गणना करके इन सबों की संख्या २५ बतायी गई है। मध्यशील और महाशील के अलावा इन्द्रियों का संवर (संयम), स्मृति, सम्प्रजन्य और सन्तोष आदि को भी शील की कोटि में रखा गया है।' 'तेविज्ज-सुत्त' में वाशिष्ठ माणव को 'ब्रह्मा की सलोकता का मार्ग' प्रदर्शित करते हुए बुद्ध ने १-मैत्री भावना, २-करुणा भावना, ३-मुदिता भावना एवं ४-उपेक्षा भावना पर बल दिया है। बुद्ध कहते हैं-२ ___ "वह ( भिक्षु ) मैत्रीभाव युक्त चित्त से एक दिशा को पूर्ण करके विहरता है; दूसरी दिशा०, तीसरी दिशा०, चौथी० इस प्रकार ऊपर नीचे आड़े बेड़े सम्पूर्ण मन से, सबके लिए, मित्रभाव (मैत्री) यक्त, विपुल, महान = अप्रमाण, वैर-रहित, द्रोह-रहित चित्त से सारे ही लोक को स्पर्श करता-विहरता है। जैसे वाशिष्ठ ! बलवान् शंखघमा ( शंख बजाने वाला) थोड़ी ही मिहनत से चारों दिशाओं को गुंजा देता है । वाशिष्ठ इसी प्रकार मित्र-भावना से भावित, चित्त की मुक्ति से जितने प्रकार में काम किया गया है, वह वहीं अवशेष = खतम नहीं होता।" "उपेक्षा" का मतलब वैर, द्रोह आदि की उपेक्षा से है । इस प्रकार यहाँ पर मैत्री को प्रधानता देकर अहिंसा को ही प्रश्रय दिया गया है। १. दीघनिकाय, पृ. २४-२८. २. दीघनिकाय, पृ० ६०-६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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