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जैन धर्म में अहिंसा परिहार किया जाता है-नहीं, ऐसा नहीं है, क्योंकि धर्म-अधर्म के विज्ञान का हेतु शास्त्र है, यह धर्म है और यह अधर्म है, इसके विज्ञान में शास्त्र ही कारण है, क्योंकि वे दोनों-धर्म और अधर्म अतीन्द्रिय हैं और उनका देश, काल और निमित्त अनियत है। जिस देश, काल और निमित्त में जिस धर्म का अनुष्ठान होता है वही धर्म अन्य देश, अन्य काल और अन्य निमित्त में अधर्म हो जाता है। इसलिए शास्त्र के बिना धर्म
और अधर्म का ज्ञान किसी को भी नहीं होता। हिंसानुग्रह आदि जिसका स्वरूप है, ऐसा ज्योतिष्टोम धर्मरूप से शास्त्र द्वारा निश्चित हुआ है, वह अशुद्ध है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? परन्तु 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' (सब भूतों की-किसी भी जीव की हिंसा न करो) यह शास्त्र ही भूतविषयक हिंसा अधर्म है, ऐसा बतलाता है। सत्य है, वह तो उत्सर्ग है। और 'अग्निषोमीयं पशुमालभेत' (अग्नि और सोम के लिए पशु का वध करे ) यह अपवाद है। उत्सर्ग और अपवाद का विषय व्यवस्थित है। इसलिए वैदिक कर्म विशुद्ध है, क्योंकि शिष्ट उसका अनुष्ठान करते हैं और वह निन्दा करने के योग्य नहीं है। इसलिए स्थावर रूप से जन्म जो प्रतिकूल है, वह उसका फल नहीं है।'
अर्थात् शंकर भी यह मानते हैं कि वेदों द्वारा निर्देशित यज्ञ में की जाने वाली हिंसा अधर्ममूलक या पापजनक नहीं है।
वैष्णव धर्म-वैष्णव धर्म के आधार ग्रन्थ गीता, विष्णुपुराण, भागवतपुराण आदि हैं, जिनमें आये हुए विचार हमने पहले ही प्रस्तुत किये हैं। इसके प्रधान आचार्यों में रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी, माधवाचार्य द्वैतवादी, विष्णुस्वामी और वल्लभ शुद्धाद्वैतवादी, निम्बार्क द्वैताद्वैतवादी तथा चैतन्य महाप्रभु अचिन्त्यभेदाभेदवादी आदि के नाम आते हैं।
रामानुज ( १०३७-११३७ ई० ) ने 'श्रीभाष्य' में ब्रह्मसूत्र ( ३. १. २५) की व्याख्या अपने ढंग से की है। इनके सामने भी १. ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य, अनु०-यतिवर भोलेबाबा, भाग २, पृ०
१६६६-१७००.
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