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________________ ४० जैन धर्म में हिंसा व्यक्ति तो एक निमित्तमात्र ही होता है, वास्तविक कर्ता तो परमेश्वर होता है जो हिंसा-अहिंसा-संबंधी दोष या गुण से परे है। किन्तु सही रूप में ज्ञानी या कर्मयोगी या भक्त बनना कोई आसान बात नहीं। इन स्तरों पर पहंचने के लिए यह आवश्यक है कि तप किया जाय । तप के विभिन्न प्रकार हैं : देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों की पूजा, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा आदि ।'.........इसके विपरीत हिंसायुक्त कार्य की गणना तामसी तथा राजसी क्रियाओं में होती है। इनके अलावा श्री कृष्ण ने ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, द्रव्ययज्ञ तथा तपयज्ञ करने को प्रेरित किया है जिनमें वैदिक यज्ञों की भांति पशुबलि और मांसाहार की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु श्री कृष्ण का यह कहना कि अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान (अच्छे कर्म), अपकीर्ति (बुरे कर्म) आदि प्राणियों के विभिन्न प्रकार के भाव मेरे से ही पैदा होते हैं,४ हिंसा-अहिंसा आदि सभी सिद्धान्तों को भी उन्हीं के साथ कर देता है और मनुष्य इनसे बिल्कुल अलग हो जाता है। इस प्रकार गीता में अहिंसा को एक प्रकार का तप या मुक्ति पाने के एक साधन के रूप में प्रस्तुत करते हुए भी ईश्वर के हाथ में अधिकृत कर दिया गया है। यदि सब-कुछ का कर्ता ईश्वर ही है तो मनुष्य क्यों व्यर्थ परेशान होगा और नाम-बदनाम के चक्र में आयेगा? १. देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥ गीता, अ० १७. २. अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥२५॥ रागी कर्मफलप्रेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । हर्षशोकान्वितः कर्ता राजस: परिकीर्तितः ।।२७।। अ० १८; अ० १८, श्लोक २८ भी देखें। ३. गीता, अ० ४, श्लोक २३-३३. ४. अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥५॥ गीता, प्र० १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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