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________________ जैनेतर पराम्पराओं में अहिंसा स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें, इसके पूर्व के सभी आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समन्वय हुआ है। इसकी भाषा सरल तथा सबोध है। इसमें अर्जुन के द्वारा उठाए गये अनेकों धार्मिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रश्नों के उत्तर श्री कृष्ण के द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। इसमें मोक्ष के तीन मार्ग बताए गए हैं-ज्ञान, भक्ति, एवं कर्म जिनका पूर्ण विवेचन क्रमशः शंकर, रामानुज तथा बालगंगाधर तिलक के द्वारा हुआ है। ज्ञान की प्रधानता दिखाते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है "ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समभाव से देखने वाले होते हैं। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया। क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित है।'' अर्थात् ज्ञानीजन अहिंसा के पथ पर चलते हैं। इसी तरह कर्म का विवेचन करते हुए कहा है : ___ "कोई भी पुरुष किसी भी काल में क्षणमात्र में भी बिना कर्म किये नहीं रहता है, निःसन्देह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं।"२ लेकिन इससे पहले उन्होंने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए यह भी कह दिया है कि कर्म करने में कर्ता का उद्देश्य क्या होना चाहिए "तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं। ( और तू ) कर्मों के फल की वासनावाला (भी) मत हो १. विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥१८॥ इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥१६॥ गीता, प्र० ५. २. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवश: कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।।५।। गीता, प्र० ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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