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________________ जनेतर परम्पराओं में अहिंसा ३१ अहिंसा धर्म और अर्थ दोनों ही ( पुरुषार्थों ) से ऊँची उठी है, सभी धर्म इसके अन्दर आ जाते हैं, जिस प्रकार हाथी के पदचिह्नों में अन्य प्राणियों के पद-चिह्न समा जाते हैं। अतः जो हिंसा नहीं करता, सबको समान दृष्टि से देखता है, सत्य बोलता है, धैर्य धारण करता है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है तथा सभी प्राणियों को शरण देता है वह उत्तम गति को प्राप्त करता है। यह ( अहिंसा ) सत्य, दान और इन्द्रियसंयम आदि तपों में से एक है' तथा सत्य (अंशतः), समता, दम, मत्सरता का अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा, अनसूया, त्याग, परमात्मा का ध्यान, आर्यता, निरन्तर स्थिर रहनेवाली वृत्ति तथा अहिंसा आदि सत्य (पूर्णतः) के विभिन्न तेरह रूपों में से एक है। यानी अहिंसा सत्य का एक अंश है । अहिंसा की गणना क्षमा, धीरता, समता आदि दमों में भी होती है। ऐसे साधारणतौर से यह उन नैतिक आचरणों में से एक है जो आदमी को जीवन में सुख प्रदान करते हैं तथा सन्मार्ग पर ले चलते हैं। जहाँ तक मांस-भक्षण का प्रश्न है, शान्तिपर्व (महाभारत) उस हालत में किसी को भी मांस खाने की अनुमति देता है, जब प्राण संकट में हो यानी प्राण की रक्षा के लिए। इस संबंध में विश्वामित्र तथा चाण्डाल की कहानी प्रस्तुत करते हुए दिखाया गया है १. अहिंसा सत्यवचनं दानमिन्द्रियनिग्रहः । एतेभ्यो हि महाराज तपो नानशनात् परम् ॥८॥ प्र० १६१. २. सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः । प्रमात्सर्य क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता ॥८॥ त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा। अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश ॥६॥ प्र० १६२. ३. क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् । इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं मार्दनं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ अकार्पण्यमसंरम्भ: संतोष: प्रियवादिता। पविहिंसानसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥१६॥ अ० १६०, ४. दमः क्षमा धृतिस्तेज: संतोषः सत्यवादिता। हीरहिंसाव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥२०॥ ० २६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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